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योग
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जाता है और पूर्व-श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द, अर्थ एवं मन-वचन-काया में से एक दूसरे में संक्रमण नहीं किया जाता, शुक्लध्यान की इस स्थिति को 'एकत्व-वितर्क-अविचारी' कहा जाता है।
जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता-श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्मक्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को 'सूक्ष्म-क्रिय' कहा जाता है। इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाति है।
जब सूक्ष्मक्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को 'समुच्छिन्न-क्रिय' कहा जाता है । इसका निवर्तन नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है। शुक्लध्यान के चार लक्षण हैं
१. अव्यथ-क्षोभ का अभाव । २. असम्मोह-सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढ़ता का अभाव । ३. विवेक-शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान ।
४. व्युत्सर्ग-शरीर और उपाधि में अनासक्त भाव । शुक्लध्यान के चार आलम्बन हैं
१.क्षान्ति-क्षमा । २. मुक्ति-निर्लोभता। ३. मार्दव-मृदुता।
४. आर्जव-सरलता। शुक्लध्यान की चार अनुपेक्षाएं हैं
१. अनन्तवृत्तिता अनुप्रेक्षा-संसार परम्परा का चिन्तन करना । २. विपरिणाम अनुप्रेक्षा-वस्तुओं के विविध परिणामों का चिन्तन
करना। ३. अशुभ अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का चिन्तन करना। ४. अपाय अनुप्रेक्षा-दोषों का चिन्तन करना।
आगम के उत्तरवर्ती साहित्य में ध्यान चतुष्टय का दूसरा वर्गीकरण भी मिलता है। उसके अनुसार ध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं-(१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत ।
तंत्रशास्त्र में भी पिण्ड, पद, रूह और रूपातीत~ये चारों प्राप्त
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