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संस्कृति के दो प्रवाह
होते हैं ।' दोनों के अर्थ भेद को छोड़कर देखा जाए तो लगता है कि जैनसाहित्य का यह वर्गीकरण तंत्रशास्त्र से प्रभावित है ।
ध्यान के विभाग ध्येय के आधार पर किए हैं । धर्मध्यान के जैसे चार ध्येय बतलाए, वैसे और भी हो सकते हैं । इसी संभावना के आधार पर पिण्डस्थ, पदस्थ आदि भेदों का विकास हुआ। वस्तुतः ये धर्मध्यान केही प्रकार हैं ।
नय-दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का होता है - सालम्बन और निरालम्बन ।
सालम्बन ध्यान भेदात्मक होता है । उसमें ध्यान और ध्येय भिन्नभिन्न रहते हैं । इसे ध्यान मानने का आधार व्यवहार नय है ।
पिण्डस्थ ध्यान में भी शरीर के अवयव - सिर, भ्रू, तालु, ललाट, मुंह, नेत्र, कान, नासाग्र, हृदय और नाभि आदि आलम्बन होते हैं । इसमें धारणाओं का आलम्बन भी लिया जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने इसके लिए पांच धारणाओं का उल्लेख किया है
(१) पार्थिवी - योगी यह कल्पना करे कि एक समुद्र है - शान्त और गंभीर । उसके मध्य में हजार पंखुड़ी वाला एक कमल है । उस कमल के मध्य में एक सिंहासन है । उस पर वह बैठा है और यह विश्वास करता है कि कषाय क्षीण हो रहे हैं, यह 'पार्थिवी' धारणा है।
(२) आग्नेयी -- सिंहासन पर बैठा हुआ योगी यह कल्पना करे कि नाभि में सोलह दल वाला कमल है । उसकी कणिका में एक महामंत्र 'अर्हम्' है और उसके प्रत्येक दल पर एक-एक स्वर है । 'अर्हम्' के एकार से धूमशिखा निकल रही है । स्फुलिंग उछल रहे हैं । अग्नि की ज्वाला
१. नवचक्रेश्वरतंत्र :
पिण्डं पदं तथा रूपं, रूपातीतं चतुष्टयम् । यो वा सम्यग् विजानाति स गुरुः परिकीर्तितः । पिण्डं कुण्डलिनी शक्तिः, पदं हंसः प्रकीर्तितः । रूपं बिन्दुरिति ज्ञेयं, रूपातीतं निरञ्जनम् ।। २. योगशास्त्र १०1७ :
संस्थानस्य चिन्तनात् ।
आज्ञापायविपाकानां इत्थं वा ध्येयभेदेन धर्म्यं ध्यानं चतुर्विधम् ॥
३. तत्त्वानुशासन, ६६ । ४. वैराग्यमणिमाला, ३४ ।
५. ज्ञानार्णव, ३७/४-३० १
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