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(१) चातुर्याम और पांच महाव्रत
प्राग्- ऐतिहासिक काल में भगवान् ऋषभ ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया था, ऐसा माना जाता है । ऐतिहासिक काल में भगवान् पार्श्व ने चातुर्याम-धर्म का उपदेश दिया था । उनके चार याम ये थे(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अचौर्य और ( ४ ) बहिस्तात् आदानविरमण ( बाह्य वस्तु के ग्रहण का त्याग ) ।' भगवान् महावीर ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया। उनके पांच महाव्रत ये हैं- ( १ ) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अचौर्य, (४) ब्रह्मचर्य और ( ५ ) अपरिग्रह । सहज ही प्रश्न होता है कि महावीर ने महाव्रतों का विकास क्यों किया ? भगवान् पार्श्व की परम्परा के आचार्य कुमारभ्रमण केशी और भगवान् महावीर के गणधर गौतम जब श्रावस्ती में आए, तब उनके शिष्यों को यह संदेह उत्पन्न हुआ कि हम एक ही प्रयोजन से चल रहे हैं, तब यह अन्तर क्यों ? पार्श्व ने चातुर्याम-धर्म का निरूपण किया और महावीर ने पांच महाव्रतधर्म का, यह क्यों ?"
कुमारश्रमण केशी ने गौतम से यह प्रश्न पूछा तब उन्होंने केशी से कहा -- “ पहले तीर्थंङ्कर के साधु ऋजु जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थङ्कर के साधु वक्र-जड़ होते हैं । बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋजु प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं ।
संस्कृति के दो प्रवाह
'पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है । चरमवर्ती साधुओं के आचार का पालन कठिन है । मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं । "
इस समाधान में एक विशिष्ट ध्वनि है। उससे इस बात का संकेत मिलता है कि जब भगवान् पार्श्वनाथ के प्रशिष्य अब्रह्मचर्य का समर्थन करने लगे, उसका पालन कठिन हो गया तब उस स्थिति को देख कर भगवान् महावीर को ब्रह्मचर्य को स्वतंत्र महाव्रत के रूप में स्थान देना पड़ा ।
१. स्थानांग, ४|१३७ । २. उत्तराध्ययन २१।१२ । ३. वही, २३।१२-१३ । ४. वही, २३।२६-२७ ।
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