________________
३. श्रमण संस्कृति के मतवाद
श्रमण संस्कृति की आधारशिला प्राग-ऐतिहासिक काल में ही रखी जा चुकी थी। बुद्ध और महावीर के काल में तो वह अनेक तीर्थों में विभक्त हो चुकी थी। विभाग का क्रम भगवान् ऋषभ से ही प्रारम्भ हो चुका था।
उसका प्रारम्भ भगवान ऋषभ के शिष्य मरीचि से हुआ था। एक दिन गर्मी से व्याकुल होकर उसने सोचा-यह श्रमण जीवन बहुत कठिन है। मैं इसकी आराधना के लिए अपने आपको असमर्थ पाता हूं। यह सोच कर वह त्रिदण्डो तपस्वी बन गया।
उसने परिकल्पना की-श्रमण मन, वचन और काया-इन तीनों का दमन करते हैं। मैं इन तीनों दण्डों का दमन करने में असमर्थ हूं, इसलिए मैं त्रिदण्ड चिह्न को धारण करूंगा। श्रमण इन्द्रिय मुण्ड हैं। मैं इंद्रियों पर विजय पाने में असमर्थ हूं, इसलिए सिर को मुण्डाऊंगा, केवल चोटी रखूगा। श्रमण अकिंचन हैं। मैं अकिंचन रहने में असमर्थ हूं, इसलिए कुछ परिग्रह रखूगा । श्रमण शील से सुगन्धित हैं। मैं शील से सुगन्धित नहीं हूं, इसलिए चंदन आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करूंगा। श्रमण मोह से रहित हैं । मैं मोह से आच्छन्न हूं, इसलिए छत्र धारण करूंगा। श्रमण पादुका नहीं पहनते, किन्तु मैं नंगे पैर चलने में असमर्थ हूं, इसलिए पादुका धारण करूंगा । श्रमण कषाय से अकलुषित हैं, इसलिए वे दिगम्बर या श्वेताम्बर हैं। मैं कषाय से कलुषित हूं, इसलिए गेरुवे वस्त्र धारणा करूंगा । श्रमण हिंसा-भीरु हैं। मैं पूर्ण हिंसा का वर्जन करने में असमर्थ हूं, इसलिए परिमित जल से स्नान भी करूंगा और कच्चा जल भी पीऊंगा।
इस परिकल्पना के अनुसार वह परिव्राजक हो गया।'
१. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ३४७, ३५०,३५६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org