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संस्कृति के दो प्रवाह
जैन साहित्य में श्रमणों के पांच प्रकार बतलाए गए हैंनिर्ग्रन्थ- जैन मुनि, शाक्य- बौद्ध भिक्ष, तापस- जटाधारी वनवासी तपस्वी, गेरुक- त्रिदण्डी परिव्राजक,
आजीवक- गोशालक के शिष्य । निशीथणि में अन्यतीर्थिक श्रमणों के ३० गणों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध-साहित्य में बुद्ध के अतिरिक्त छह श्रमण-संघ के तीर्थङ्करों का उल्लेख मिलता है।'
दशवकालिक नियुक्ति में श्रमण के अनेक पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं--प्रवजित, अनगार, पाषण्ड, चरक, तापस, भिक्ष, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, वायी, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष और तीरस्थ।
इन नामों में चरक, तापस, परिव्राजक आदि शब्द निर्ग्रन्थों से भिन्न श्रमण सम्प्रदाय के सूचक हैं। श्रमण के एकार्थवाची शब्दों में उन सबका संकलन किया गया है।
१. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७३१-७३३ : निग्गंथ सक्क तावस गेरुय, आजीव पंचहा समणा । तम्मि निग्गंथा ते जे, जिणसासणभवा मुणिणो ॥ सक्का य सुगयसीसा, जे जडिला ते उ तावसा गीया । जे धाउरत्तवत्था, तिदंडिणो गेरुया ते उ॥ जे गोसालगमयमणुसरंति, भन्नति ते उ आजीवा ।
समणत्तणेण भुवणे, पंचवि पत्ता पसिद्धिमिमे ।। २. निशीथच णि, भाग २, पृ० ११८-२०० । ३. दीघनिकाय, सामञफलसुत्त, पृ० १६-२२ । ४. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा १५८-१५६ ।
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