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४. श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु
जितने श्रमण सम्प्रदाय थे, उनमें अनेक मतवाद थे। पूरणकश्यप अक्रियावादी था । मस्करी गोशालक संसार-शुद्धिवादी या नियतिवादी था । अजित केशकम्बल उच्छेदवादी था । पकुद्धकात्यायन अन्योन्यवादी था । संजयवेलटिठपुत्र विक्षेपवादी था । "
बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी और जैन दर्शन स्याद्वादी था। इतने विरोधी विचारों के होते हुए भी वे सब श्रमण थे, अवैदिक थे । इसका हेतु क्या था ? कौन सा ऐसा समता का धागा था, जो सबको एक माला में पिरोए हुए था । इस प्रश्न की मीमांसा अब तक प्राप्त नहीं है । किन्तु श्रमणों की मान्यता और जीवन-चर्या का अध्ययन करने पर हम उनकी एकसूत्रता के कुछेक मूलभूत हेतुओं पर पहुंच सकते हैं :
वेद का अप्रामाण्य
१. परम्परागत एकता २. व्रत
३. संन्यास या श्रामण्य ४. यज्ञ-प्रतिरोध
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५.
६. जाति की अतात्त्विकता
७. समत्व की भावना व अहिंसा
उत्तराध्ययन में इन विषयों पर बहुत व्यवस्थित विवेचन किया गया है । वह आध्यात्मिक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक भी है ।
१. परम्परागत एकता
श्रमण परम्परा का मूल उद्गम एक है, इसलिए अनेक सम्प्रदाय होने पर भी मूलतः वह अविभक्त है । श्रमण परम्परा का उद्गम भगवान् ऋषभ से हुआ है । जयघोष ब्राह्मण ने निर्ग्रन्थ विजयघोष से पूछा -धर्म
१. दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० १६ ।
२. ( क ) भगवती, १५ । (ख) उपासकदशा, ७ । (ग) दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० २० ।
३. ( क ) दशाश्रुतस्कंध, छट्ठी दशा । ( ख ) दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ०
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२०-२१ ।
४. ( क ) सूत्रकृतांग, १|१२|७ ( ख ) दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० २१ । ५. दीघनिकाय, सामञ्ञफलसुत्त, पृ० २२ ।
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