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संस्कृति के दो प्रवाह स्वल्प निद्रा और प्रगाढ़ निद्रा में शुभ या अशुभ ध्यान नहीं होता। इसी प्रकार नवोत्पन्न शिशु तथा जिनका चित्त मूच्छित, अव्यक्त, मदिरापान से उन्मत्त, विष आदि से प्रभावित है, उनके भी ध्यान नहीं होता। ध्यान का अर्थ शून्यता या अभाव नहीं है । अपने आलम्बन में गाढ़ रूप से संलग्न होने के कारण जो निष्प्रकम्प हो जाता है, वही चित्त ध्यान कहलाता है। मदु, अव्यक्त और अनवस्थित चित्त को ध्यान नहीं कहा जा सकता। ध्यान चेतना की वह अवस्था है, जो अपने आलम्बन के प्रति एकाग्र होती है अथवा बाह्य-शून्यता होने पर भी आत्मा के प्रति जागरूकता अबाधित रहती है। इसीलिए कहा गया है "जो व्यवहार के प्रति सुषुप्त है, वह आत्मा के प्रति जागरूक है।"
उक्त विवरण से फलित होता है कि चिन्तन-शून्यता ध्यान नहीं और वह चिन्तन भी ध्यान नहीं है, जो अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ध्यान है, भावक्रिया ध्यान है और चेतना के व्यापक प्रकाश में चित्त विलीन हो जाता है, वह भी ध्यान है।
इन परिभाषाओं के आधार पर जाना जा सकता है कि जैन आचार्य जड़तामय शून्यता व चेतना की मूर्छा को ध्यान कहना इष्ट नहीं मानते
थे।
ध्यान के प्रकार
एकाग्र चिन्तन को ध्यान कहा जाता है, इस व्युत्पत्ति के आधार पर उसके चार प्रकार होते हैं-(१) आर्त, (२) रौद्र, (३) धर्म और (४) शुक्ल ।
(१) आर्तध्यान-चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं
कोई पुरुष अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस (अमनोज्ञ विषय) के वियोग का चितन करता है--यह पहला प्रकार है।
कोई पुरुष मनोज्ञ संयोग से संयुक्त है, वह उस (मनोज्ञ विषय) के वियोग न होने का चिंतन करता है-यह दूसरा प्रकार है।
कोई पुरुष आतंक-सद्योघाती रोग के संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग का चिंतन करता है-यह तीसरा प्रकार है ।
कोई पुरुष प्रीतिकर काम-भोग के संयोग से संयुक्त है, वह उसके वियोग न होने का चिंतन करता है--यह चौथा प्रकार है। १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १४८१-१४८३ ।
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