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२. प्रतिक्रमणयोग्य-किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या
मे दुष्कृतम्'-मेरे सब पाप निष्फल हों-ऐसा कहना, कायोत्सर्ग आदि करना तथा भविष्य में पाप-कर्मों से दूर रहने के लिए सावधान
रहना। ३. तदुभययोग्य-पाप से निवृत्त होने के लिए आलोचना और
___ प्रतिक्रमण-दोनों करना। ४. विवेक-आए हुए अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग करना। ५. व्युत्सर्ग-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना । ६. तप-उपवास, बेला आदि करना।। ७. छेद-पाप-निवृत्ति के लिए संयमकाल को छेद कर कम कर
देना। ८. मूल-पुनः व्रतों में आरोपित करना-नई दीक्षा देना। ९. अनवस्थापना-तपस्या-पूर्वक नई दीक्षा देना। १०.पारांचिक-भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक नई दीक्षा देना।'
तत्त्वार्थ सूत्र (२२) में प्रायश्चित्त के ह ही प्रकार बतलाए गए हैं, 'पारांचिक' का उल्लेख नहीं है। (२) विनय
__ यह आभ्यन्तर तप का दूसरा प्रकार है। स्थानांग (७.१३०), भगवती (२५॥५८२) और औपपातिक (सू० २०) में विनय के ७ भेद बतलाए गए हैं
१. ज्ञान-विनय-ज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना। २. दर्शन-विनय-गुरु की शुश्रूषा करना, आशातना न करना । ३. चारित्र-विनय-चारित्र का यथार्थ प्ररूपण और अनुष्ठान
करना। ४. मनोविनय-अकुशल मन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । ५. वचन-विनय-अकुशल वचन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । ६. काय-विनय-अकुशल काय का निरोध और कुशल की प्रवत्ति ।
७. लोकोपचार-विनय-लोक-व्यवहार के अनुसार विनय करना । १. (क) स्थानांग, १०७३ ।
(ख) भगवती, २५२५५६ । (ग) औपपातिक, सूत्र २० ।
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