________________
संस्कृति के दो प्रवाह
११. विषय-भोगों के प्रति अनादर - उदासीन भाव उत्पन्न होता है । १२. समाधि-मरण का स्थिर अभ्यास होता है ।
१३. आत्म- दमन होता है - आह र आदि का अनुराग क्षीण होता है । १४. आहार - निराशता - आहार की अभिलाषा के त्याग का अभ्यास होता है ।
२१४
१५. अमृद्धि बढ़ती है ।
१६. लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता है । १७. ब्रह्मचर्यं सिद्ध होता है ।
१८. निद्वा-विजय होती है ।
१६. ध्यान की दृढ़ता प्राप्त होती है ।
२०. विमुक्ति - विशिष्ट त्याग का विकास होता है । २१. दर्प का नाश होता है ।
२२. स्वाध्याय-योग की निर्विघ्नता प्राप्त होती है ।
२३. सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति बनती है ।
२४. आत्मा, कुल, गण, शासन - सबकी प्रभावना होती है । २५. आलस्य त्यक्त होता है ।
२६. कर्म - मल का विशोधन होता है ।
२७. दूसरों को संवेग उत्पन्न होता है ।
२८. मिथ्यादृष्टियों में भी सौम्य भाव उत्पन्न होता है ।
२६. मुक्ति-मार्ग का प्रकाशन होता है ।
३०. तीर्थङ्कर की आज्ञा की आराधना होती है ।
३१. देह - लाघव प्राप्त होता है ।
३२. शरीर-स्नेह का शोषण होता है ।
३३. राग आदि का उपशम होता है ।
३४. आहार की परिमितता होने से नीरोगता बढ़ती है । ३५ सन्तोष बढ़ता है । '
आभ्यन्तर तप
आभ्यन्तर तप के छह प्रकार
( १ ) प्रायश्चित्त
-
यह आभ्यन्तर तप का पहला प्रकार है । इसके दस भेद हैं१. आलोचनायोग्य — गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना ।
१. मूलाराधना, ३।२३७-२४४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org