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________________ योग २. अवमोदय के प्रयोजन(क) संयम में सावधानता। (ख) वात, पित्त, श्लेष्म आदि दोषों का उपशमन । (ग) ज्ञान, ध्यान आदि की सिद्धि। ३. वत्तिसंक्षेप के प्रयोजन(क) भोजन सम्बन्धी आशा पर अंकुश । (ख) भोजन सम्बन्धी संकल्प-विकल्प और चिन्ता का नियंत्रण । ९. रस-परित्याग के प्रयोजन---- (क) इन्द्रिय-निग्रह। (ख) निद्रा-विजय । (ग) स्वाध्याय-ध्यान की सिद्धि । ५. विविक्त-शय्या के प्रयोजन (क) बाधाओं से मुक्ति । (ख) ब्रह्मचर्य-सिद्धि। (ग) स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि । ६. कायक्लेश के प्रयोजन(क) शारीरिक कष्ट-सहिष्णुता का स्थिर अभ्यास । (ख) शारीरिक सुख की श्रद्धा से मुक्ति । (ग) जैन धर्म की प्रभावना ।' बाह्य तप के परिणाम : १. सुख की भावना स्वयं परित्यक्त हो जाती है। २. शरीर कृश हो जाता है। ३. आत्मा संवेग में स्थापित होती है ४. इन्द्रिय-दमन होता है। ५. समाधि-योग का स्पर्श होता है। ६. वीर्य-शक्ति का उपयोग होता है ७. जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। ८. संक्लेश-रहित दुःख-भावना-कष्ट-सहिष्णुता का अभ्यास होता है। ६. देह, रस और सुख का प्रतिबन्ध नहीं रहता। १०. कषाय का निग्रह होता है। १. तत्त्वार्थ, २०, श्रुतसागरीय वृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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