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संस्कृति के दो प्रवाह (१) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, (३) योग प्रतिसंलीनता और (२) कषाय प्रतिसंलीनता, (४) विविक्त-शयनासन-सेवन ।'
प्रस्तुत अध्ययन में संलीनता की परिभाषा केवल विविक्त-शयनासन के रूप में की गई, यह आश्चर्य का विषय है। हो सकता है सूत्रकार इसी को महत्त्व देना चाहते हों।
तत्त्वार्थ सत्र आदि उत्तरवर्ती ग्रंथों में भी इसी का अनुसरण हआ है। विविक्त-शयनासन का अर्थ मूल-पाठ में स्पष्ट है।
मूलराधना के अनुसार जहां शब्द, रस, गंध और स्पर्श के द्वारा चित्तविक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय और ध्यान में व्याघात नहीं होता, वह विविक्तशय्या है । जहां स्त्री, पुरुष और नपुंसक न हों, वह विविक्त-शय्या है। भले फिर उसके द्वार खले हों या बन्द, उसका प्राङ्गण सम हो या विषम, वह गांव के बाह्य-भाग में हो या मध्य-भाग में, शीत हो या ऊष्ण ।
विविक्त-शय्या के छह प्रकार ये हैं-(१) शून्य-गृह, (२) गिरिगुफा, (३) वृक्ष-मूल, (४) आगन्तुक-आगार (विश्राम-गृह), (५)देवकुल, अकृत्रिम शिला-गृह और (६) कूट-गृह ।।
विविक्त शय्या में रहने से निम्न दोषों से सहज ही बचाव हो जाता है-(१) कलह, (२) बोल (शब्द बहुलता), (३) झंझा (संक्लेश), (४) व्यामोह, (५) सांकर्य (असंयमियों के साथ मिश्रण), (६) ममत्व तथा (७) ध्यान और स्वाध्याय का व्याघात ।' बाह्य तप के प्रयोजन
१. अनशन के प्रयोजन--
(क) संयम-प्राप्ति । (ख) राग-नाश । (ग) कर्म-मल विशोधन । (घ) सध्यान की प्राप्ति । (3) शास्त्राभ्यास।
१. औपपातिक, सूत्र १६: से किं तं पडिसंलीणया ? पडिसंलीणया चउविहा
पण्णत्ता, तं जहा-इंदिअपडिसलीणया कसायपडिसलीणया जोगपडिसलीणया विवित्तसयणासणसेवणया। २. तत्त्वार्थ सुत्र, ६।१६ : अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्या
सनकायक्लेशा बाह्य तपः ।। ३. मूलाराधना, ३।२२८,२२६,२३१,२३२ ।
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