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________________ योग २११ उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना 'कायक्लेश' है। यह व्याख्या उक्त व्याख्याओं से भिन्न है। वैसे तो उपवास आदि करने में काया को क्लेश होता है, किन्तु भोजन से सम्बन्धित अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रस-परित्याग-इन चारों बाह्य तपों से कायक्लेश का लक्षण भिन्न होना चाहिए, इस दृष्टि से कायक्लेश की व्याख्या उपवास प्रधान न होकर अनासक्ति-प्रधान होनी चाहिए । शरीर के प्रति निर्ममत्व-भाव रखना तथा उसे प्राप्त करने के लिए आसन आदि साधना तथा उसकी साज-सज्जा व संवारने से उदासीन रहना-यह कायक्लेश का मूलस्पर्शी अर्थ होना चाहिए। उत्तराध्ययन के दूसरे अध्ययन में जो परीषह बतलाए गए हैं, उनसे यह भिन्न है । कायक्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट होता है। श्रुतसागर गणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत ऋतु में खुले स्थान में और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे सोना, नाना प्रकार की प्रतिमाएं और आसन करना 'काय-क्लेश' है।' ६. प्रतिसंलीनता उत्तराध्ययन ३०८ में बाह्य तप का छठा प्रकार संलीनता' बतलाया गया है और ३०।२८ में उसका नाम 'विविक्त शयनासन' है। भगवती (२५१५७२) में छठा प्रकार 'प्रतिसंलीनता' है। तत्त्वार्थ सूत्र (६।१६) में 'विविक्त-शयनासन' बाह्य तप का छठा प्रकार है। इस प्रकार कुछ ग्रंथों में 'संलीनता' या प्रतिसंलीनता' और कुछ ग्रंथों में विविक्तशय्यासन' या 'विविक्त-शय्या' का प्रयोग मिलता है। किन्तु औपपातिक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है। 'विविक्त-शयनासन' उसी का एक अवान्तर भेद है। प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है१. वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक ३५१ : आयंबिलणिव्वियडी एयट्ठाणं छ?माइ खवणेहिं । जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयव्वो ॥ २. तत्त्वार्थ, ६।१६, श्रुतसागरीय वृत्ति : यदृच्छ्या समागतः परीषहः, स्वयमेव कृतः कायक्लेश इति परीषहकायक्लेशयोविशेषः । ३. वही, ६.१६, श्रुतसागरीय वृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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