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संस्कृति के दो प्रवाह
बाह्य आलम्बन की दृष्टि से चार वस्तुएं विसर्जनीय मानी गई हैं(१) शरीर, (२) गण, (३) उपधि और ( ४ ) भक्त-पान | (१) शरीर - व्युत्सगं - शारीरिक चंचलता का विसर्जन । (२) गण - व्युत्सर्ग - विशिष्ट साधना के लिए गण का विसर्जन । (३) उपधि- व्युत्सर्ग-वस्त्र आदि उपरणों का विसर्जन । (४) भक्त - पान- व्युत्सर्ग-भोजन और जल का विसर्जन । आन्तरिक वृत्तियों की दृष्टि से विसर्जनीय वस्तुएं तीन हैं(१) कषाय, ( २ ) संसार और ( ३ ) कर्म ।
(१) कषाय- व्युत्सर्ग - क्रोध आदि का विसर्जन ।
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(२) संसार - व्युत्सर्ग-संसार के मूल हेतु राग-द्वेष का विसर्जन । (३) कर्म - व्युत्सर्ग - कर्म पुद्गलों का विसर्जन ।
उत्तराध्ययन में केवल शरीर व्युत्सर्ग की परिभाषा दी गई है ।" इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है ।
कायोत्सर्ग
से
कायोत्सर्ग का अर्थ है 'काया का उत्सर्ग' । होने से पहले काया का उत्सर्ग कैसे हो सकता है ? आयु शेष रहती है, तब तक काया का उत्सर्ग-त्याग किन्तु यह काया अशुचि है, अनित्य है, दोषपूर्ण है, इसमें ममत्व रखना दुःख का मूल है - इस बोध है । जिसे भेद - ज्ञान प्राप्त होता है, वह सोचता है कि है, मैं इसका नहीं हूं । मैं भिन्न हूं, शरीर भिन्न है । इस प्रकार का संकल्प करने से शरीर के प्रति आदर घट जाता है । इस स्थिति का नाम कायोत्सर्ग है । एक घर में रहने पर भी पति द्वारा अनादृत पत्नी परित्यक्ता कहलाती है । जिस वस्तु के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में अनादर भावना होती है, वह उसके लिए परित्यक्त होती है । जब काया में ममत्व नहीं रहता, आदरभाव नहीं रहता, तब काया परित्यक्त हो जाती है ।'
कायोत्सर्ग की यह परिभाषा पूर्ण नहीं है । यदि काया के प्रति होने वाले ममत्व का विसर्जन ही कायोत्सर्ग हो तो चलते-फिरते व्यक्ति के भी कायोत्सर्ग हो सकता है, पर निश्चलता के बिना वह नहीं होता । हरिभद्र
१. उत्तराध्ययन, ३०।३६ ।
२. मूलाराधना, ११८८, विजयोदया वृत्ति ।
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प्रश्न होता है, आयु पूर्ण यह सही है, जब तक नहीं किया जा सकता, असार है, दुःख - हेतु है, भेद-ज्ञान प्राप्त होता यह शरीर मेरा नहीं
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