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संस्कृति के दो प्रवाह
घोष वहीं हो सकता है, जहां संन्यास को सर्वोच्च साधन माना जाए । अब हम शेष साधनों पर विचार करना चाहेंगे ।
छद्म वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा - 'राजर्षे ! पहले तुम विपुल यज्ञ करो, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराओ, दान दो, फिर मुनि हो जाना ।'
नमि राजर्षि ने इसके उत्तर में कहा- जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गाएं देता है, उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे ।"
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इन्द्र ने तीन बातें कहीं और राजर्षि ने उनमें से सिर्फ एक ही बात (दान) का उत्तर दिया । शेष दो बातों का उत्तर उसी में समाहित कर दिया । उसकी ध्वनि यह है- "जो मनुष्य प्रतिदिन यज्ञ करता है, उसके लिए भी संयम श्रेय है, भले फिर वह कभी यज्ञ न करे । इसी प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन श्रमणों-ब्राह्मणों को भोजन कराता है, उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह श्रमण-ब्राह्मणों को कभी भोजन न कराए । इन तीनों प्रसंगों का फलित यही है कि संयम सर्वोत्कृष्ट है ।
यज्ञ सभी श्रमण-संघों के लिए इष्ट नहीं रहा है । गायों व स्वर्ण आदि का दान भी उनमें परम मोक्ष-साधन के रूप में स्वीकृत नहीं रहा है । निर्ग्रन्थ श्रमणों ने तो उस पर तीव्र प्रहार किया था।
'ब्रह्मणों को भोजन कराने पर वे रौरव (नरक) में ले जाते हैं" -भृगु पुत्रों ने यह जो कहा उसका तात्पर्य ब्राह्मणों की निन्दा करना नहीं, किन्तु उस सिद्धान्त की तीखी समालोचना करना है जो जन्मना जाति के आधार पर विकसित हुआ था ।
जैन साहित्य में उक्त दान और धर्म एक दान शब्द के द्वारा ही निरूपित हैं । सूत्रकृतांग में कहा है- 'जो दान की प्रशंसा करता है, वह प्राणियों का वध चाहता है और जो उसका निषेध करता है, वह दान को प्राप्त करने वालों की वृत्ति का छेद करता है । इसलिए मुमुक्षु को 'पुण्य है' और नहीं है' -- इन दोनों से बच कर मध्यस्थभाव का आलम्बन लेना चाहिए ।"
१. उत्तराध्ययन, ६।३८-४० ।
२. (क) हरिवंश पुराण, ६०।१३-१४
(ख) अमितगति श्रावकाचार, ८।४६; ६ ५४-५५ ।
३. उत्तराध्ययन, १४।१२ ।
४. सूत्रकृतांग, ११११।२०- २१ ।
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