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संस्कृति के दो प्रवाह
निवेदन किया- 'पता नहीं कौन श्रावक है और कौन श्रावक नहीं है ? भोजन के लिए इतने लोग आने लगे हैं कि उन सबको भोजन कराने में हम असमर्थ हैं ।'
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सम्राट् ने कहा - 'कल जो भोजन करने आएं उन्हें पूछ-पूछ कर भोजन कराना और जो श्रावक हों, उन्हें मेरे पास ले आना ।'
दूसरे दिन भोजन करने वाले आए । तब रसोइयों ने पूछा- 'आप
कौन हैं ? '
'श्रावक ।'
'श्रावक के कितने व्रत होते हैं ?'
'पांच ।'
'शिक्षाव्रत कितने हैं ? '
'सात ।'
जिन्होंने यह उत्तर दिया उन सबको वे रसोइए सम्राट् के पास ले गए । सम्राट् ने अपने काकणी रत्न से उनके वक्ष पर तीन रेखाएं खींच दीं। वे 'मान' 'माहन' कहते थे इसलिए 'भान' या 'ब्राह्मण' कहलाने लगे । भरत के पुत्र आदित्ययशा ने ब्राह्मणों के लिए सोने के यज्ञोपवीत बनवाए । महायशा आदि उत्तरवर्ती राजाओं ने चांदी, सूत आदि के यज्ञोपवीत बनवाए। ब्राह्मण भरत द्वारा पूजित थे इसलिए दूसरे लोग भी उन्हें दान देने लगे । भरत ने उनके स्वाध्याय के लिए वेदों की रचना की । उन वेदों में श्रावक-धर्म का प्रतिपादन था । नवें तीर्थङ्कर सुविधिनाथ का निर्वाण होने के कुछ समय पश्चात् साधु-संघ का विच्छेद हो गया । उन ब्राह्मणों और उन वेदों का भी विच्छेद हो गया । वर्तमान के ब्राह्मण और वेद उनके बाद की सृष्टि हैं । '
इस प्रकार आवश्यकनिर्युक्तिकार ( ई० सन् १००-२०० ) की कल्पना के अनुसार भरत द्वारा चिह्नित श्रावक मूल ब्राह्मण हैं और भरत द्वारा निर्मित वेद ही मूल वेद हैं । इन सबकी उत्पत्ति का आदि स्रोत जैन परम्परा है । इस विषय में श्रीमद् भागवत के स्कंध ५, अध्याय ४ तथा स्कंध ११, अध्याय २ द्रष्टव्य हैं ।
वैदिक वाङ्मय
डा० लक्ष्मणशास्त्री ने वैदिक संस्कृति को श्रमण संस्कृति का मूल माना है । उनका अभिमत है -- 'जैन तथा बौद्ध धर्म भी वैदिक संस्कृति की
१. आवश्यक निर्युक्ति, गा० ३६१-३६६; वृत्ति पत्र २३५, २३६ ।
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