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१. श्रमण और वैदिक परम्परा का पौर्वापर्य
हिन्दुस्तान में श्रमण और वैदिक — ये दो परम्पराएं बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही हैं । इनका अस्तित्व ऐतिहासिक काल से आगे प्राग्ऐतिहासिक काल में भी जाता है । इनमें कौन पहले थी और कौन पीछे हुई, यह प्रश्न बहुत चर्चनीय और विवादास्पद है । यह प्रश्न विवादास्पद इसलिए बना कि श्रमण परम्परा के समर्थक श्रमण परम्परा को प्राचीन प्रमाणित करते हैं और वैदिक परम्परा के समर्थक वैदिक परम्परा को । श्रमण साहित्य की ध्वनि है कि वैदिक परम्परा श्रमण परम्परा से उद्भूत हुई है और वैदिक वाङ्मय की ध्वनि है कि श्रमण परम्परा वैदिक परम्परा से उद्भूत हुई है ।
भ्रमण साहित्य
भगवान् ऋषभ प्राग्-ऐतिहासिक काल में हुए। वे जैन परम्परा के आदि-तीर्थंकर थे और धर्म-परम्परा के भी प्रथम प्रवर्तक थे । उनके पुत्र सम्राट् भरत ने एक स्वाध्यायशील श्रावक - मण्डल की स्थापना की । एक दिन उन श्रावकों को आमंत्रित कर भरत ने कहा - 'आप प्रतिदिन मेरे घर पर भोजन किया करें, खेती - व्यापार आदि न करें। अधिक समय स्वाध्याय में लगाएं । प्रतिदिन मुझे यह चेतावनी दिया करें - आप पराजित हो रहे हैं, भय बढ़ रहा है, इसलिए 'मा हन, मा हन. ' - हिंसा न करें, हिंसा न करें ।'
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उन्होंने वैसा ही काम करना शुरू किया ।
भरत चक्रवर्ती था। वह राज्य - चिन्ता और भोगों में कभी प्रमत्त हो जाता । उनकी चेतावनी सुनकर सोचता- 'मैं किनसे पराजित हो रहा हूं ? भय किस ओर से बढ़ रहा है ?' इस चिन्तन से वह तत्काल समझ जाता - 'मैं कषाय से पराजित हो रहा हूं और कषाय से भय बढ़ रहा है ।' वह तत्काल अप्रमत्त हो जाता ।
वे श्रावक चक्रवर्ती की रसोई में ही भोजन करते थे। उनके साथसाथ और भी बहुत लोग आने लगे । रसोइयों के सामने एक समस्या खड़ी हो गई। वे भोजन करने वालों की बाढ़ से घबड़ा गए । उन्होंने चक्रवर्ती से
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