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________________ ३५ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु नहीं बधते थे; आजीविका के लिए त्रस जीवों का वध नहीं करते थे। उदुम्बर और बरगद के फल तथा प्याज-लहसुन और कन्द-मूल आदि नह खाते थे । ' इस प्रकार जैन, बौद्ध और आजीवक - इन तीनों में व्रतों की व्यवस्थ मिलती है । शेष श्रमण सम्प्रदायों में भी व्रतों की व्यवस्था होनी चाहिए जहां श्रामण्य या प्रव्रज्या की व्यवस्था है, वहां व्रतों की व्यवस्था न हो, ऐस सम्भव नहीं लगता । जैन धर्म और व्रत-परम्परा sro हर्मन जेकोबी ने ऐसी संभावना की है कि जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से उधार लिए हैं । ब्राह्मण संन्यासी मुख्यतया अहिंसा, सत्य अचौर्य, संतोष और मुक्तता - इन पांच व्रतों का पालन करते थे । डा० कोबी का अभिमत है कि जैन- महाव्रतों की व्यवस्था के आधार उक्त पांच व्रत बने हैं । यह संभावना केवल कल्पना पर आधारित है । इसका कोई वास्तविक आधार नहीं है । यदि हम व्रतों की परम्परा का ऐतिहासिक अध्ययन करें तो अहिंसा आदि व्रतों का मूल ब्राह्मण - परम्परा में नहीं पाएंगे । Mero जेकोबी ने बौधायन में उल्लिखित व्रतों के आधार पर यह संभावना की, किन्तु प्रश्न यह है कि उसमें व्रत कहां से आए ? इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व संन्यास आश्रम पर विचार करना आवश्यक है । क्योंकि व्रत और संन्यास का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । वैदिक साहित्य में सर्वं प्राचीन ग्रन्थ वेद हैं । उनमें 'आश्रम' शब्द का उल्लेख नहीं है । ब्राह्मण और आरण्यक ग्रन्थों में भी आश्रमों की चर्चा नहीं है । उपनिषद् - काल में आश्रमों की चर्चा प्रारम्भ होती है। बृहदारण्यक में संन्यास को 'आत्म-जिज्ञासा के बाद होने वाली स्थिति' कहा है। वहां लिखा है'इस आत्मा को ब्राह्मण वेदों के स्वाध्याय, यज्ञ, दान और निष्काम-तप के द्वारा जानने की इच्छा करते हैं । इसी को जानकर मुनि होते हैं । इस आत्मलोक की ही इच्छा करते हुए त्यागी पुरुष सब कुछ त्याग कर चले जाते हैं, संन्यासी हो जाते हैं । इस संन्यास में कारण यह है- पूर्ववर्ती १. भगवती, ८।२४२ । २. The Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction p. 24. "It therefore probable that the Jains have borrowed their own vows from the Brahmans, not from the Buddhists. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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