SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृति के दो प्रवाह में अपना पुस्कार प्राप्त करते हैं, तो दुष्टों के लिए भी परलोक में दण्ड मिलने का न सही, किन्तु कम से कम किसी न किसी प्रकार के आवास की कल्पना कर लेना भी, जैसा कि 'अवेस्ता' में है, स्वाभाविक ही है। जहां तक अथर्ववेद और कठ उपनिषद् का सम्बन्ध है, इनमें नरक की कल्पना निश्चित रूप से मिलती है। अथर्ववेद (२,१४: ५, १६') यम के क्षेत्र (१२-३") 'स्वर्ग-लोक के विपरीत, 'नारक-लोक' नामक राक्षसियों और अभिचारिणियों के आवास के रूप में एक अधो-गह (पाताल-लोक) की चर्चा करता है । हत्यारे लोग इसी नरक में भेजे जाते हैं (वाजसनेयि संहिता ३०,५) । इसे अथर्ववेद में अनेक बार 'अधम अन्धकार' (८,२" इत्यादि) और साथ ही साथ, 'काला अन्धकार' (५,३०१) और 'अन्ध अन्धकार' (१८, ३') कहा गया है । नारकीय यातनाओं का भी एक बार ही अथर्ववेद (५,१६) में और अपेक्षाकत अधिक विस्तृत रूप से शतपथ ब्राह्मण (११, ६, १) में वर्णन किया गया है; क्योंकि परलोक के दण्ड की धारणा अपने स्पष्ट रूप में ब्राह्मण-काल और उसके बाद से ही विकसित हुई है।" उत्तराध्ययन में 'देव' शब्द का प्रयोग इकतीस बार हुआ है। चार बार 'देवलोक' (देवलोग या देवलोय) का प्रयोग हुआ है। ___ उसमें तीसरे अध्ययन में बताया गया है- 'कर्म के हेतु को दूर कर । क्षमा से यश (संयम) का संचय कर। ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को छोड़ कर ऊर्ध्व दिशा (स्वर्ग या मोक्ष) को प्राप्त होता है। ___"विविध प्रकार के शीलों की आराधना करके जो देवकल्पों व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे उत्तरोत्तर महाशुक्ल (चन्द्र-सूर्य) की तरह दीप्तिमान होते हैं। 'स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता'-ऐसा मानते हैं, वे दैवी भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किए हुए रहते हैं । इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं तथा सैकड़ों पूर्ववर्षों-असंख्य-काल तक वहां रहते हैं।" "जो संवृत भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है-सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव । _"देवताओं के आवास क्रमशः उत्तम, मोह-रहित, द्युतिमान् और १. वैदिक माइथोलॉजी 'हिन्दी अनुवाद', पृ० ३२१-३२२ । २. देखिए-दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि, शब्द-सूची, पृ० १९८ । ३. वही, शब्द-सूची पृ० १९८ । ४. उत्तराध्ययन, ३।१३-१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy