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श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि
७५ देवों से आकीर्ण होते हैं। उनमें रहने वाले देव यशस्वी, दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी क्रान्ति वाले और सूर्य के समान अति-तेजस्वी होते हैं।'
___ 'देव और नरक-योनि में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक एकएक जन्म-ग्रहण तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।२
छत्तीसवें अध्ययन में देव-जाति के प्रकारों का निरूपण है।'
नरक ( नरग या नरय या निरय) का प्रयोग सतरह बार हुआ है। उन्नीसवें अध्ययन में नारकीय वेदनाओं का विशद वर्णन है। नारकीय जीवों का निरूपण छत्तीसवें अध्ययन में हुआ है।
कुछ श्रमण स्वर्ग और नरक में विश्वास नहीं करते थे। इस प्रसंग में अजितकेशकम्बल का उच्छेदवाद उल्लेखनीय है। संजयवेलठ्ठिपुत्त भी इस विषय में कोई निश्चित मत नहीं रखता था।' ६-निर्वाण
___ वैदिक यज्ञ-संस्था में पारलौकिक जीवन का महत्त्वपूर्ण संस्थान स्वर्ग है । निर्वाण का सिद्धान्त उन्हें मान्य नहीं था। उपनिषदों में वह स्थिर हुआ है। श्रमण परम्परा आरम्भ से ही निर्वाणवादी रही है। श्रीमद्भागवत में भगवान ऋषभ को मोक्ष धर्म की अपेक्षा से ही वासुदेव का अवतार कहा गया है।
भगवान् बुद्ध ने वैदिक परम्परा से अपने उद्देश्य की पृथक्ता बतलाते हुए कहा-'पंचशिख ! हां मुझे स्मरण है। मैं ही उस समय महागोविन्द था। मैंने ही उन श्रावकों को ब्रह्मलोक का मार्ग बतलाया था। पंचशिख ! मेरा वह ब्रह्मचर्य न निर्वेद के लिए ( न विराग के लिए), न उपशम १. उत्तराध्ययन, ५५२५-२७ । २. वही, १०।१४। ३. वही, ३६।२०४-२४७ । ४. देखिए, दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि, शब्द-सूची-पृ० २०४,२१० । ५. उत्तराध्ययन, १६।४७-७३ । ६. वही, ३६।१५६-१६६ । ७. दीघनिकाय, १२, पृ० २०-२१ । ८. वही, ११२, पृ० २२ । ६. श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ११, अध्याय २, खण्ड २, पृ० ७१०:
तमाहुर्वासुदेवांशं, मोक्षधर्मविवक्षया।
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