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२६. आवश्यक कर्म
मुनि के लिए प्रतिदिन अवश्य करणीय कर्म हैं-- (१) सामायिक (४) प्रतिक्रमण (२) चतुर्विशस्तव (५) कायोत्सर्ग (३) वंदना
(६) प्रत्याख्यान (१) समता का विकास जीवन की पहली आवश्यकता है । आत्मा की परिणति विषम होती है, तब असत् प्रवृत्तियां होती हैं। जब आत्मा की प्रवृत्ति सम होती हैं, प्रवृत्तियां अपने आप निरुद्ध हो जाती हैं। इस सम परिणति का नाम ही सामायिक है।
(२) प्रमोद भावना का विकास भी बहुत आवश्यक है। जैन परम्परा में भक्ति का महत्त्व रहा है, किन्तु उसका सम्बन्ध सर्व शक्तिसम्पन्न सत्ता से नहीं है । वह किसी शक्ति को प्रसन्न करने व उससे कुछ पाने के लिए नहीं की जाती, किन्तु उसका प्रयोजन वीतराग के प्रति होता है। कालचक्र के वर्तमान खण्ड में चौबीस तीर्थकर हए हैं। वे सब स्वयं वीतराग और वीतराग-धर्म के प्रवर्तक थे। इसलिए उनकी स्तुति आवश्यक में सम्मिलित की गई । सामायिक होने पर ही भक्ति आदि आवश्यक कर्म सफल होते हैं, इसीलिए इनका सामायिक के बाद महत्त्व दिया गया।
(३) उद्धत वृत्ति का निवारण भी आवश्यक कर्म है । वंदना करने से उद्धत-भाव नष्ट होता है और अनुकूलता का भाव विकसित होता
(४) व्रतों में छेद हो जाएं, उन्हें भरना आवश्यक कर्म है । मन चंचल है। वह त्यक्त कार्य के प्रति भी आसक्त हो जाता है। उससे व्रत टट जाते हैं और आश्रव का द्वार खुल जाता है। मन को पूनः स्थिर बना व्रतों का सन्धान करने से आश्रव के द्वार बन्द हो जाते हैं। यह प्रतिक्रमण का कार्य है।
(५) काया का बार-बार उत्सर्ग करना शारीरिक, मानसिक और १. उत्तराध्ययन, २६८।
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