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२. दण्डायत-दण्ड की भांति लम्बा हो कर पैर पसार कर बैठना। ३. आम्रकुब्जिका-आम्र-फल की भांति टेढ़ा होकर बैठना।' ४. वज्रासन-बाएं पैर को दाईं जांघ पर और दाएं पैर को बाई
जांघ पर रखकर हाथों को वज्राकार रूप में पीछे ले जाकर पैरों के अंगूठे पकड़ना। यह बद्धपद्मासन
जैसी स्थिति है। ५. सुखासन-बाएं पैर को उसके नीचे और दाएं पैर को जंघा के
ऊपर रख कर बैठना।' ६. पद्मासन-दाएं पैर को बाई जंघा पर और बाएं पैर को दाई
जंघा पर रख कर बैठना। ७. भद्रासन-वृषण के आगे दोनों पाद-तलों को संपुट कर (सीवनी
के बाएं भाग में बाएं पैर की एड़ी रख) दोनों हाथों
को कर्म मुद्रा के आकार में स्थापित कर बैठना। ८. गवासन-गाय की तरह बैठना । गोनिषद्या और गवासन एक
ही प्रतीत होता है । घेरण्ड संहिता में जो गो-मुखासन का उल्लेख है, वह इससे भिन्न है। अमितगति के अनुसार साध्वियां इसी आसन में बैठ कर साधुओं को
वंदन किया करती थीं। ६. समपद-जंघा और कटि-भाग को समरेखा में रख कर
बैठना।' १०. मकरमुख-दोनों पैरों को मगर-मुंह की आकृति में अवस्थित
कर बैठना। घेरण्ड संहिता में मकरासन का उल्लेख
है। वह औंधे मुख सोकर छाती को भूमि पर टिका १. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५८४, वृत्ति : आम्रकुब्जो वा आम्रफलवद् वक्राकारेणाव
स्थितः । २. योगशास्त्र, ४।१२७ । ३. यशस्तिलक, ३६ । ४. योगशस्त्र, ४।१३० :
सम्पुटीकृत्य. मुष्काने, तलपादौ तथोपरि। पाणिकच्छपिकां कुर्यात्, यत्र भद्रासनं तु तत् ॥ ५. अमितगति श्रावकाचार, ८।४८ : गवासनं जिनरुक्तमार्याणां यतिवंदने । ६. मूलाराधना, ३१७२४, विजयोदया, वृत्ति : समपदं-स्फिपिडसमकरणेनासनम् । ७. वही, २।२२४, विजयोदया, वृत्ति : मकरस्य मुखमिव कृत्वा पादाववस्थानम् ।
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