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उपलब्ध होते हैं
१. समपादपुता ।
२. गोनिषधिका - गाय की तरह बैठना ।'
३. हस्तिशुण्डिका - पुतों के बल पर बैठ कर एक पैर को ऊंचा
रखना ।
४. पर्यङ्का । ५. अर्द्ध-पर्यङ्का ।
इनमें उत्कटिका और गोदोहिका नहीं हैं । उनके स्थान पर हस्तिfuser और गोनिषधिका हैं । यह परिवर्तन परम्परा भेद का सूचक है । स्थानांग, औपपातिक, बृहत्कल्प. दशाश्रुतस्कंध आदि आगमों में वीरासन, दण्डायत, आम्रकुब्जिका तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में वज्रासन, सुखासन, पद्मासन, भद्रासन, शवासन, समपद, मकरमुख, हस्तिशुण्डि गोनिषद्या, कुक्कुटासन आदि आसन भी उपलब्ध होते हैं । "
१. वीरासन - कुर्सी पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती है, उस स्थिति में कुर्सी के बिना स्थित रहना ।
१. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ५६५३, वृत्ति : यस्यां तु गोरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका । २. वही, गाथा ५६५३, वृत्ति : यत्र पुताभ्यामुपविश्य एकं पादमुत्पाटयति सा हस्तिfuser |
३. (क) मूलाराधना, ३।३२४-२२५ :
समपलियं कणिसेज्जा, गोदोहिया य उक्कुडिया | मगरमुह हत्थिसुंडी, गोणणिसेज्जद्धपलियंका ॥ वीरासणं च दंडा य,
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(ख) ज्ञानार्णव, २८।१० :
संस्कृति के दो प्रवाह
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पर्यङ्कमर्द्धपर्यङ्क, वज्रवीरासनं तथा । सुखारविन्द पूर्वे च कायोत्सर्गश्च सम्मतः ॥ (ग) योगशास्त्र, ४।१२४ :
वीर-वाज-भद्र-दण्डासनानि च । उत्कटिका गोदोहिका कायोत्सर्गस्तथासनम् ॥ (घ) अमितगति श्रावकाचार, ८।४५-४८ । (ङ) मूलाराधना, अमितगति, ३।२२३-२२४ :
मस्फिगं समस्फिक्कं कृत्यं कुक्कुटकासनम् । बहुधेत्यासन साधोः कायक्लेश विधायिनः ॥ कोदण्डलगडादण्ड, कर्त्तव्या बहुधा शय्या,
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शवशय्या पुरस्सरम् । शरीरक्लेशकारिणा ॥
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