________________
श्रमण और वैदिक परम्परा की पृष्ठभूमि
६६
उपनिषदों से पूर्ववर्ती वैदिक साहित्य में आत्मा और परलोक के विषय में बहुत विशद चर्चा नहीं है । निर्ग्रन्थ आदि श्रमण संघ आत्मा को त्रिकालवर्ती मानते थे । पुनर्जन्म के विषय में भी उनकी धारणा बहुत स्पष्ट थी ।
भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रों से कहा - 'पुत्रो ! जिस प्रकार अरणी में अविद्यमान अग्नि उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिलों में तैल पैदा होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं । शरीर का नाश हो जाने पर उनका अस्तित्व नहीं रहा । " तब पुत्र बोले- 'पिता ! आत्मा अमूर्त है, द्वारा नहीं जाना जा सकता । यह अमूर्त है, इसलिए है कि आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के संसार का हेतु है - ऐसा कहा है ।"
बहुत सारे कामासक्त लोक परलोक को नहीं मानते थे । वे कहते थे— 'परलोक तो हमने देखा नहीं, यह रति (आनन्द) तो चक्षु दृष्ट है— आंखों के सामने है। ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं । भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं । कौन जानता है- परलोक है या नहीं ? हम लोक-समुदाय के साथ रहेंगे । ऐसा मान कर बाल- मनुष्य धृष्ट बन जाता है । वह कामभोग के अनुराग से क्लेश पाता है ।
'फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी समूह की हिंसा करता है । हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली खाने वाला, वेश-परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रकट करने वाला अज्ञानी मनुष्य मद्य और मांस का भोग करता है, यह श्रेय है - ऐसा मानता है ।
इसलिए यह इन्द्रियों के नित्य है । यह निश्चय हेतु हैं और बन्धन ही
'वह शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है । वह राग और द्वेष-- दोनों से उसी प्रकार कर्म - मल का संचय करता है, जैसे शिशुनाग ( अलस या केंचुआ) मुख और शरीर — दोनों से मिट्टी का ।"
१. उत्तराध्ययन, १४।१८ ।
२. वही, १४।१६ | ३. वही, ५।५ - १० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org