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________________ १६६ संस्कृति के दो प्रवाह जिसमें अहिंसा का पालन किया जा सकता है । उनके व्यवसाय का विशेष तरीका भी धार्मिक नियमों से निश्चित होता था । जिसमें विशेष करके यात्रा के प्रति गहरी अरुचि रहती थी और यात्रा को कठिन बनाने के अनेक नियमों ने उन्हें स्थानीय व्यापार के लिए प्रोत्साहित किया, फिर जैसा कि यहूदियों के साथ हुआ, वे साहूकारी (बेंकिंग) और ब्याज के धन्धों में सीमित रह गए। 'उनकी पूंजी लेन-देन में ही सीमित रही और वे औद्योगिक संस्थानों के निर्माण में असफल रहे । इसका मूल कारण भी जैन-मत का सैद्धान्तिक पक्ष ही रहा जिससे की जैन लोग उद्योग में पादन्यास कर ही नहीं सके । 'जैन सम्प्रदाय की उत्पत्ति भारतीय नगर के विकास के साथ-साथ प्रायः समसामयिक है । इसीलिए शहरी जीवन विरोधी बंगाल जैनत्व को बहुत कम ग्रहण कर सका । लेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि यह सम्प्रदाय धनवानों से उत्पन्न है । यह क्षत्रियों की विचार कल्पना से तथा गृहस्थों की संन्यास भावना से प्रस्फुटित हुआ है । इसके सिद्धान्त विशेषकर श्रावकों (गृहस्थों के लिए निश्चित विधान) तथा दूसरे धार्मिक नियमों ने ऐसे दैनिक जीवन का गठन किया, जिसका पालन व्यापारियों के लिए ही संभव था । ' मैक्स बेवर की ये मान्यताएं काल्पनिक तथ्यों पर आधारित हैं । ये हैं— (१) जैन श्रावक के लिए आक्रमणकारी होने का निषेध है । वह प्रत्याक्रमण की हिंसा से अपने को मुक्त नहीं रख पाता । भगवान् महावीर के समय जिन क्षत्रियों या क्षत्रिय राजाओं ने अनाक्रमण का व्रत लिया था, उन्होंने भी अमुक-अमुक स्थितियों में लड़ने की छूट रखी थी । जैन सम्राटों, राजाओं, सेनापतियों, दण्डनायकों और सैनिकों ने देश की सुरक्षा के लिए अनेक लडाइयां लड़ी थीं । गुजरात और राजस्थान में जैन सेनानायकों की बहुत लम्बी परम्परा रही है । इसी संदर्भ में उस निष्कर्ष को मान्य नहीं किया जा सकता कि अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन धर्म क्षत्रिय वर्ग के अनुकूल नहीं है । (२) भगवान् महावीर के श्रावकों में आनन्द गृहपति का स्थान पहला है । वह बहुत बड़ा कृषिकार था । उसके पास चार व्रज थे । प्रत्येक १. दी रिलिजन्स ऑफ इण्डिया, पृ० १६३ - २०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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