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________________ जैन धर्म और वैश्य १६७ ब्रज में दस-दस हजार गाएं थीं। आज भी कच्छ आदि प्रदेशों में हजारों जैन खेतीहर हैं। एक शताब्दी पूर्व राजस्थान में भी हजारों जैन-परिवार खेती किया करते थे। इस संदर्भ में वह निष्कर्ष भी मान्य नहीं होता कि अहिंसा प्रधान होने के कारण जैन धर्म किसानों के अनुकूल नहीं है । (३) व्यापार में प्रत्यक्ष जीव-वध नहीं होता, इसलिए वह अहिंसा प्रधान जैन धर्म के अधिक अनुकूल है, यह भी विशेष महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है। जैन आचार्यों ने असि, मषी, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य-इन छहों कर्मों को एक कोटि का माना है। तलवार, धनुष, आदि शस्त्र-विद्या में निपुण असि-कर्मार्य हैं। मुनीमी का कार्य करने वाला मषि-कार्य है। धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार आदि शिल्प कर्मार्य हैं। चन्दन, घी, धान्य आदि का व्यापार करने वाला वणिक्कर्मार्य है। ये छहों अविरत होने से सावद्यकार्य हैं। जो लोग अव्रती होते हैं, जिनके संकल्पी-हिंसा का त्याग नहीं होता, वे भले रक्षा का काम करें, खेती करें या वाणिज्य करें, सावध काम करने वाले ही होते हैं। जो श्रावक होते हैं, उनके व्रत भी होता है, इसलिए वे चाहे व्यापार करें, खेती करें या रक्षा का काम करें, अल्पसावध काम करने वाले होते हैं। जैन-श्रावक बनने का अर्थ कषि, रक्षा आदि से दूर हटना नहीं, किन्तु संकल्पी-हिंसा और अनर्थ-हिंसा का त्याग करना है। जैन आचार्यों ने केवल प्रत्यक्ष जीव-वध को ही दोषपूर्ण नहीं माना, किन्तु मानसिक हिंसा को भी दोषपूर्ण माना है। इसी आधार पर आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में ब्याज के धन्धे को महा हिंसा की कोटि में उपस्थित किया था। (४) श्रावकों के लिए ऐसे दैनिक-जीवन का गठन नहीं किया, गया, जिससे वह वैश्य-वर्ग के सिवाय अन्य वर्गों के अनुकल न हो। (५) बंगाल में जैन-धर्म के अस्तित्व की चर्चा पहले की जा चुकी है। उसके आधार पर कहा जा सकता है-'शहरी जीवन विरोधी बंगाल जैनत्व को बहुत कम ग्रहण कर सका'-यह तथ्य भी सारपूर्ण नहीं है । ___मैक्स वेबर जिन निष्कर्ष पर पहुंचे, उन्हें हम जैन धर्म की सैद्धान्तिक भूमिका के स्तर से सम्बन्धित नहीं मान सकते। किन्तु तात्कालिक जैन १. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ३३३६ : षडप्येते अविरतिप्रवणत्वात् सावद्यकार्याः । २. वही, ३३६ अल्पसावद्यकर्यािः श्रावकाः श्राविकाश्च विरत्यविरतिपरिणतत्वात्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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