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१८. जैन धर्म और वैश्य
कुछ विद्वान् कहते हैं कि जैन धर्म अहिंसा को सर्वाधिक महत्त्व देता है। युद्ध और रक्षा में हिंसा होती है, इसलिए यह धर्म क्षत्रियों के अनुकूल नहीं है। कृषि आदि कर्मों में हिंसा होती है, इसलिए यह किसानों के भी अनुकूल नहीं है। यह सिर्फ उन व्यापारियों के अनुकूल है, जो शांतिपूर्वक अपना व्यापार चलाते हुए जीव-हिंसा से बचाव करने का यत्न किया करते हैं। मैक्स वेबर ने उक्त विषय पर कुछ विस्तार से लिखा है
जैन धर्म एक विशिष्ट व्यापारिक-सम्प्रदाय है, जो पश्चिम के यहूदियों से भी ज्यादा एकांतिक रूप से व्यापार में लगा हुआ है। इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से एक धर्म का व्यापारों उद्देश्य के साथ सम्बन्ध देखते हैं, जो हिन्दू-धर्म के लिए बिल्कुल विदेशीय है।
___... अहिंसा के सिद्धान्त ने जैनियों को जीव-हिंसा वाले तमाम उद्योगों से अलग रखा। अत: उन व्यापारों से जिसमें अग्नि का प्रयोग होता है, तेज या तीक्ष्ण धार वाले यंत्रों का उपयोग (पत्थर या काठ वे कारखाने आदि में) होता है, भवनादि निर्माण-व्यवसाय तथा अधिकांश उद्योग-धन्धों से जैनियों को अलग रखा । खेती-बारी का काम तो बिल्कुल ही बाद पड़ गया, क्योंकि विशेषतः खेत जोतने में कीड़े-मकोडे आदि के सदा हिंसा होती है।
__'यह उल्लेखनीय है कि (जैनधर्म में) अधिक धन संचित करने के मनाही नहीं है, बल्कि धन का अत्यधिक मोह या सम्पत्ति के पीछे पागल है जाने की मनाही है। यह सिद्धान्त पश्चिम के एशेटिक प्रोटेस्टेन्टीज्म वे सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। प्रोटेस्टेन्टीज्म ने सम्पत्ति और लाभ के बुरा नहीं बताया किन्तु उसमें लवलीन होने को आपत्तिजनक बताया है
और भी बातें समान हैं। जैन-मत में अतिशयोक्ति या झूठ वर्ण्य है । जैन लोग व्यापार में बिलकुल सचाई रखने पर विश्वास करते हैं। माया रूप कार्यों की एकदम मनाही है। झूठ, चोरी या भ्रष्ट तरीकों से कमाए हुए धन को वर्जित मानते हैं।
'जैन विशेषतः श्वेताम्बर सभी जैनों के व्यापारी बनने का मुरूर हेतु धार्मिक सिद्धान्त ही है। केवल व्यापार ही एक ऐसा व्यवसाय है
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