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जैन धर्म और वैश्य
१६६ इन चारों वर्गों में जो धर्म फैला हुआ है, वह सिमट कर अधिकांशतया वैश्यों के हाथ में चला जाएगा।''
आठवें स्वप्न में उन्होंने देखा-"जुगनू प्रकाश कर रहा है।" आचार्य भद्रबाहु ने इसका फल बताया-"श्रमण-गण आर्यमार्ग को छोड़, केवल क्रिया का घटाटोप दिखा वैश्य-वर्ग में उद्योत करेगा। फलतः निर्ग्रन्थों का पूजा-सत्कार कम हो जाएगा और बहुत लोग मिथ्यात्व रत हो जाएंगे।"
सम्राट का नौवां स्वप्न था—“सरोवर सूख गया, केवल दक्षिण, दिशा में थोडा जल भरा है और वह भी पूर्ण स्वच्छ नहीं है।" आचार्य भद्रबाहु ने इसका फल बताया-"जिस भूमि में तीर्थङ्करों के पांच कल्याण (च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण) हुए थे, वहां धर्म की हानि होगी और दक्षिण-पश्चिम में थोड़ा-थोड़ा धर्म रहेगा और वह भी अनेक मतवादों और पारस्परिक संघर्षों से परिपूर्ण ।"३
भद्रबाहु की इस भविष्यवाणी में उस घटना-क्रम का अंकन है, जब जैन धर्म एक स्थिति से दूसरी स्थिति में संक्रान्त हो रहा था। जैन श्रमण मतभेदों को प्रधानता दे रहे थे; जैन श्रावक प्रत्यक्ष जीववध की तुलना में मानसिक हिंसा को कम आंक रहे थे और जैन शासन एक जाति के रूप में संगठित हो रहा था।
१. व्यवहार चूलिका : उत्तमे उक्करडियाए कमलं उग्गयं दिळें, तस्स फलं तेणं माहण खत्तिय वइस्स सुई चउण्हं वण्णाणं मज्जे वइस्स हत्थे धम्म
भविस्सई। २. वही : अट्ठमे खज्जुओ उज्जोयं करेइ । तेणं समणा आरियमग्गं मोत्तूण
खज्जुया इव किरियाए फडाडोवं दंसिऊण वइस्स वण्णे उज्जोयं करिस्संति । तेण समणाणं णिग्गंथाणं पूयासक्कारे थोवे भविस्सई, बहुजणा मिच्छत्त
रागिणो भविस्संति। ३. वही : णवमे सुक्कं सरोवरं दाहिणदिसाए थोवं जलभरियं गड़ लियं दिळें,
तस्स फलं तेणं जत्थ जत्थ भूमिए पंच जिणकल्लाणं तत्थ देसे धम्महाणी भविस्सई दाहिणपच्छिमए किंपि धम्मं बहुमइडोहलियं भविस्सइ ।
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