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कर्मवाद और लेश्या
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अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं। योगी की कर्म-जाति 'अशुक्लअकृष्ण' होती है । शेष तीन कर्म-जातियां सब जीवों में होती हैं ।' उनका कर्म कृष्ण होता है, जिनका चित्त दोष कलुषित या क्रूर होता है । पीड़ा और अनुग्रह दोनों विद्याओं से मिश्रित कर्म 'शुक्ल कृष्ण' कहलाता है । ये बाह्य साधनों के द्वारा साध्य होते हैं । तपस्या, स्वाध्याय श्रौर ध्यान में निरत लोगों के कर्म केवल मन के अधीन होते हैं । उनमें बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं होती और न किसी को पीड़ा दी जाती है, इसलिए इस कर्म को 'शुक्ल' कहा जाता है । जो पुण्य के फल की भी इच्छा नहीं करते, उन क्षीणक्लेश चरमदेह योगियों के अशुक्ल-अकृष्ण कर्म होता है । "
श्वेताश्वतर उपनिषद् में प्रकृति को लोहित, शुक्ल और कृष्ण कहा गया है ।' सांख्यकौमुदी के अनुसार रजोगुण से मन मोह - रञ्जित होता है, इसलिए वह लोहित है । सत्त्व-गुण से मन मल रहित होता है, इसलिए वह शुक्ल है । " स्वरविज्ञान में भी यह बताया गया है कि विभिन्न तत्त्वों के विभिन्न वर्ण प्राणियों को प्रभावित करते हैं । उनके अनुसार मूलतः प्राणतत्त्व एक है । अणुओं के न्यूनाधिक वेग या कम्पन के अनुसार उसके पांच विभाग होते हैं । उनके नाम, रंग, आकार आदि इस प्रकार हैं
नाम
वेग
रंग
आकार
रस या स्वाद
पीला
चतुष्कोण
सफेद या बैंगनी अर्द्धचंद्राकार
१. पृथ्वी
२. जल
३. तेजस्
४. वायु
५. आकाश
अल्पतर
अल्प
तीव्र
तीव्रतर
तीव्रतम
१. पातञ्जल योगसूत्र, ४।७ ।
३. श्वेताश्वतर उपनिषद् ४।५ :
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लाल
नीला या
आसमानी
काला या
नीलाभ ( सर्ववर्ण क मिश्रित रंग)
त्रिकोण
गोल
अनेक बिन्दु
गोल या
आकर शून्य
२. वही, ४१७ भाष्य ।
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां, बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते, जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ ४. सांख्य कौमुदी, पृ० २०० ।
५. शिवस्वरोदय, भाषा टीका, श्लोक १५६, पृ० ४२
आपः श्वेता क्षितिः पीता, रक्तवर्णों हुताशनः ।
मारुतो नीलजीभूतः, आकाशः सर्ववर्णकः ।।
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मधुर
कसैला
चरपरा
खट्टा
कडवा
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