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६. श्रामण्य और कायक्लेश
कुछ लोगों का अभिमत है कि बाह्य निमित्तों के बचाव की प्रक्रिया में श्रमण जीवन जटिल बन गया । सहज सुविधाएं नष्ट हो गईं, उनका स्थान कायक्लेश ने ले लिया। क्या यह सच है कि श्रमण जीवन बहुत ही कठोर है ? हमारे अभिमत में ऐसा नहीं है । भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर - दोनों ने अज्ञानपूर्ण कायक्लेश का प्रतिवाद किया । अज्ञानी करोड़ों वर्षों के कायक्लेश से जिस कर्म को क्षीण करता है, उसे ज्ञानी एक क्षण में क्षीण कर डालता है । यह सही है कि मुनि-जीवन में कायक्लेश का सर्वथा अस्वीकार नहीं है । फिर भी जितना महत्त्व संवर, गुप्ति, ध्यान आदि का है, उतना कायक्लेश का नहीं है । कई आचार्यों ने समय-समय पर कायक्लेश को कुछ अतिरिक्त महत्त्व दिया है, किन्तु जैन वाङ्मय की समग्र चिन्तनधारा में वह प्राप्त नहीं होता |
आचारांग सूत्र में कहा गया है- 'काया को कसो, उसे जीर्ण करो,' किंतु वह एकान्त वचन नहीं है । आगम सूत्रों में कुछ मुनियों के कठोर तप का उल्लेख है । उसे पढ़कर सहज ही यह धारणा बन जाती है कि मुनिजीवन कठोर तपस्या का जीवन है । कुछ विद्वानों का अभिमत है कि जैन साधना प्रारम्भ में कठोर ही थी, फिर बौद्धों की मध्यम प्रतिपदा से प्रभावित हो कुछ मृदु बन गई । बौद्ध धर्म के उत्कर्ष काल में जैन परम्परा उससे प्रभावित नहीं हुई, यह तो नहीं कहा जा सकता । किन्तु इसे भी अमान्य नहीं किया जा सकता कि जैन साधना में मृदुता और कठोरता का सामञ्जस्य आरम्भ से ही रहा है ।
साधना के मुख्य अंग दो हैं- संवर और तपस्या ।
संवर के पांच प्रकार हैं - ( १ ) सम्यक्त्व, (२) व्रत, (३) अप्रमाद, (४) अकषाय और ( ५ ) अयोग । इनकी साधना मृदु है— कायक्लेश-रहित है |
तपस्या के बारह प्रकार हैं(१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) भिक्षाचरी,
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(४) रस - परित्याग, (५) कायक्लेश, (६) प्रतिसंलीनता.
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