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(७) प्रायश्चित्त, (८) विनय,
(६) वैयावृत्त्य,
(१०) स्वाध्याय, (११) ध्यान और
( १२ ) व्युत्सर्गं ।
इनमें अनशन - लम्बे उपवासों तथा कायक्लेशों को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार को कठोर साधना नहीं कहा जा सकता । ये दोनों बहिरंग तपस्या ( प्रथम छह प्रकारों) के अंग हैं। इनकी तुलना में अन्तरंग तपस्या - ( अंतिम छह प्रकारों) का अधिक महत्त्व है ।
दूसरी बात यह है कि कायक्लेश व दीर्घकालीन उपवासों का मुनि के लिए अनिवार्य विधान नहीं है । यह अपनी रुचि का प्रश्न है । जिन मुनियों की रुचि इनकी ओर अधिक होती है, वे इन्हें स्वीकार करते हैं और जिनकी रुचि ध्यान आदि की ओर होती है, वे उन्हें स्वीकार करते हैं । सब व्यक्तियों की रुचि को एक ओर मोड़ा नहीं जा सकता ।
संस्कृति के दो प्रवाह
महाव्रत और कायक्लेश
मृगापुत्र के माता-पिता ने कहा - "पुत्र ! मुनि-जीवन का पालन बड़ी कठोर साधना है ।"" यहां कठोर साधना का अभिप्राय कायक्लेश से नहीं है । अहिंसा का पालन कठोर है— शत्रु और मित्र के प्रति समभाव रखना सरल काम नहीं है । सत्य का पालन भी कठोर है- सदा जागरूक रहना सरल काम नहीं है । इसी प्रकार अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्रि भोजन- विरति का पालन भी कठोर है । इस कठोरता का मूल आत्मसंयम है किन्तु कायक्लेश नहीं । ये व्रत यावज्जीवन के लिए हैं, इसलिए भी इन्हें कठोर कहा गया। यहां यह जान लेना प्रासंगिक होगा कि जैन मुनि की दीक्षा यावज्जीवन के लिए होती है, वह बौद्ध-दीक्षा की भांति अल्पकालिक नहीं होती ।
महाव्रतों की साधना काया को कष्ट देने के लिए नहीं है । उनके द्वारा मुख्य रूप से कायिक, वाचिक और मानसिक संयम सिद्ध होता है । उसकी सिद्धि में क्वचित् कायक्लेश प्राप्त हो सकता है पर वह संयम-सिद्धि का मुख्य साधन नहीं है ।
परीवह और कायक्लेश
मुनि के लिए बाईस प्रकार के परीषहों - कष्टों को सहने का विधान किया गया है, किन्तु वह काया को कष्ट देने की दृष्टि से नहीं है । अहिंसा
१. उत्तराध्ययन १६।२४ ।
२ . वही, १६।३५ : जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महाभरी ।
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