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________________ श्रामण्य और कायक्लेश आदि महाव्रतों की पालना करने में जो कष्ट उत्पन्न होते हैं, उन्हें सहन करना काया को क्लेश देना नहीं किन्तु स्वीकृत धर्म में अडिग रहना है। मध्यम प्रतिपदा में विश्वास रखने वाले इस प्रकार के कष्टों से अपने को नहीं बचाते थे। ऐसे कष्टों को शांतिपूर्वक सहन करने की प्रेरणा दी जाती थी। बुद्ध ने कहा -"भिक्षुओं ! यह सीखो कि हम सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, दंशमशक, वात-आतप, सर्प सम्बन्धी कष्टों, शारीरिक वेदनाओं को सहन करने में समर्थ होंगे।" धुतांग साधना में भी अनेक कष्टों को सहा जाता था।' बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा था-'भिक्षुओं ! जिसने कायानुस्मृति का अभ्यास किया है, उसे बढ़ाया है, उस भिक्षु को दस लाभ होने चाहिए। कौन से दस ? । ___ 'वह अरति-रति-सह (उदासी के सामने डटा रहने वाला) होता है। उसे उदासी परास्त नहीं कर सकती। वह उत्पन्न उदासी को परास्त कर विहरता है। 'वह भय-भैरव-सह होता। उसे भय-भैरव परास्त नहीं कर सकता । वह उत्पन्न भय-भैरव को परास्त कर विहरता है। _ 'शीत उष्ण, भूख-प्यास, डंक मारने वाले जीव, मच्छर, हवा-धूप, रेंगने वाले जीवों के आघात; दुरुक्त, दुरागत वचनों तथा दुःखदायी, तीव्र, कटु, प्रतिकूल, अरुचिकर, प्राण-हर शारीरिक पीड़ाओं को सह सकने वाला होता है।" ___ कायक्लेश और परीषह की भिन्नता प्राचीन काल से ही मानी जाती रही है । श्रुतसागरगणी ने दोनों का भेद बतलाते हुए लिखा है'कायक्लेश अपनी इच्छा के अनुसार किया जाता है और परीषह समागत कष्ट है।" अनेकान्तदृष्टि __ जैन आचार्यों की कायक्लेश के विषय में अनेकान्तदृष्टि रही है। उन्होंने अपेक्षा के अनुसार उसे महत्त्व भी दिया है और अनपेक्षित कायक्लेश का विरोध भी किया है। आर्य जिनसेन ने इस अनेकान्तदृष्टि की बड़ी मार्मिक चर्चा की है। उन्होंने भगवान् ऋषभ के प्रसंग में एक चिन्तन प्रस्तुत किया है-'मुमुक्षु को अपना शरीर न तो कृश ही बनाना चाहिए और न प्रवर रसों के द्वारा उसे पुष्ट ही करना चाहिए, किन्तु उसे मध्यम१. अंगुत्तरनिकाय, ४।१६।७। ३. बुद्धवचन, पृ० ४१ . २. विशुद्धिमग्ग, दूसरा परिच्छेद । ४. तत्त्वार्थ, ६।१६ श्रुतसागरीय वृत्ति । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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