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साधना-पद्धति
१८७ हैं। विद्या, कला, कौशल, वक्तृत्व आदि शक्तियों का विकास और पराक्रम सहज ही जन-मानस को प्रभावित कर देता है। संगठन के लिए ऐसे पारगामी व्यक्ति भी सदा अपेक्षित होते हैं।
संगठन के लिए जो आठ आधार भगवान् ने बताए, उनमें से पहले चार वैयक्तिक हैं। उनसे व्यक्ति अपनी आत्मा की सहायता करता है और साथ-साथ संघ को भी लाभान्वित करता है । अन्तिम वार से व्यक्ति दूसरों की सहायता कर संघ को शक्तिशाली बनाता है।
____दर्शन-विहीन व्यक्ति के ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता, चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता।
दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति भव-परम्परा का अन्त पा लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् महावीर ने दर्शन को उतना ही महत्त्व दिया, जितना ज्ञान और चारित्र को। इसीलिए हम जैन दर्शन को केवल श्रद्धा (या भक्ति) योग का समर्थक नहीं कह सकते।
(३) चारित्र की साधना के पांच अंग हैं१. सामायिक।
४. सूक्ष्मसंपराय। २. छेदोपस्थापन।
५. यथाख्यात।' ३. परिहारविशुद्धीय।
चारित्र सम्पन्न व्यक्ति स्थिर बनता है। भगवान् महावीर ने चारित्र को ज्ञान और दर्शन का सार कहा है। जैन दर्शन केवल चारित्रकर्मयोग का समर्थक नहीं है।
(४) तप की साधना के बारह अंग हैं१. अनशन।
७. प्रायश्चित्त। २. ऊनोदरी।
८. विनय । ३. भिक्षाचरी।
६. वैयावृत्य। ४. रस-परित्याग।
१०. स्वाध्याय। ५. कायक्लेश।
११. ध्यान। ६. संलीनता (विविक्त-शयनासन) १२. व्युत्सर्ग । १. उत्तराध्ययन, २८१३० । २. वही, २६६० । ३. वही, २८॥३२,३३ । ४. वही, २६६१ । ५. वही, ३०८,३० ।
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