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कर्मवाद और लेश्या
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(११) आयु - लेश्या के प्रारम्भिक और अन्तिम समय में आयु शेष नहीं होता, किन्तु मध्यकाल में वह शेष होता है । यह नियम सब श्याओं के लिए समान है ।'
तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( पृ० २३८ ) में लेश्या पर सोलह दृष्टियों से
विचार किया गया है
१. निर्देश
२. वर्ण
३. परिणाम
४. संक्रम
५. कर्म
६. लक्षण
१०.
७. गति
११. क्षेत्र
८. स्वामित्व १२. स्पर्शन
१३. काल
१४. अंतर
१५. भाव
१६. अल्प - बहुत्व
भगवती, प्रज्ञापना आदि आगमों में तथा उत्तरवर्ती ग्रंथों में लेश्या का जो विशेष विवेचन किया गया है, उसे देख कर सहज ही यह विश्वास होता है कि जैन आचार्य लेश्या सिद्धान्त की प्रस्थापना के लिए दूसरे सम्प्रदायों के ऋणी नहीं हैं ।
६. साधन
संख्या
मनुष्य का शरीर पौद्गलिक है । जो पौद्गलिक होता है, उसमें रंग अवश्य होते हैं । इसीलिए संभव है कि रंगों के आधार पर वर्गीकरण करने की प्रवृत्ति चली । महाभारत में चारों वर्णों के रंग भिन्न-भिन्न बतलाए गए हैं । जैसे - ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला और शूद्रों का काला ।
जैन साहित्य में चौबीस तीर्थङ्करों के भिन्न-भिन्न रंग बतलाए गए हैं । पद्मप्रभ और वासुपूज्य का रंग लाल, चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त का रंग श्वेत, मुनि सुव्रत और अरिष्टनेमि का रंग कृष्ण, मल्लि और पार्श्व का रंग नील तथा शेष सोलह तीर्थङ्करों का रंग सुनहला था । '
रंग-चिकित्सा के आधार पर भी लेश्या के सिद्धान्त की व्याख्या की जा सकती है । रंगों की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग रंगों की समुचित पूर्ति होने पर मिट जाते हैं । यह उनका शारीरिक प्रभाव । इसी प्रकार रंगों के परिवर्तन और मात्रा भेद से मन भी प्रभावित होता है । इस प्रसंग डा० जे० सी० ट्रस्ट की 'अणु और आभा ' पुस्तक द्रष्टव्य है ।
१. उत्तराध्ययन, ३४।५८- ६० ।
२. महाभारत, शांतिपर्व, २८८३५
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ब्राह्मणानां सितोवर्ण:, क्षत्रियाणां तु लोहितः ।
वैश्यानां पातको वर्णः शूद्राणामसितस्तथा ॥
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३. अभिधान चिन्तामणि, ११४६ ।
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