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संस्कृति के दो प्रवाह सका'-'इस वाक्य की अपेक्षा यह वाक्य अधिक उपयुक्त हो सकता है कि 'बौद्ध जैन आदि विभिन्न ब्राह्मण विरोधी मत-मतान्तरों का विकास आत्मवेत्ता क्षत्रियों की बदौलत ही संभव हो सका। क्योंकि अध्यात्म-विद्या की परम्परा बहुत प्राचीन रही है, सभवतः वेद-रचना से पहले भी रही है। उसके पुरस्कर्ता क्षत्रिय थे। ब्राह्मण-पुराण भी इस बात का समर्थन करते हैं कि भगवान् ऋषभ क्षत्रियों के पूर्वज हैं।' उन्होंने सुदूर क्षितिज में अध्यात्म-विद्या का उपदेश दिया था। ब्राह्मणों की उदारता
- ब्राह्मणों ने भगवान् ऋषभ और उनकी अध्यात्म-विद्या को जिस प्रकार अपनाया, वह उनकी अपूर्व उदारता का ज्वलन्त उदाहरण है। एम० विन्टरनिट्ज के शब्दों में हम यह भी न भूल जाएं कि (भारत के इतिहास में) ब्राह्मणों में ही यह प्रतिभा पाई जाती है कि अपनी घिसी-पिटी उपेक्षित विद्या में भी नए-विरोधी भी क्यों न हों-विचारों की संगति बिठा सकते हैं। आश्रम-व्यवस्था को, इसी विशिष्टता के साथ, चुपचाप उन्होंने अपने (ब्राह्मण) धर्म का अंग बना लिया-वानप्रस्थ और संन्यासी लोग भी उन्हीं की प्राचीन व्यवस्था में समा गए।
आरण्यकों और उपनिषदों में विकसित होने वाले अध्यात्म-विद्या को विचार-संगम की संज्ञा देकर हम अतीत के प्रति अन्याय नहीं करते । डा० भगवतशरण उपाध्याय का मत है कि ऋग्वैदिक-काल के बाद जब उपनिषदों का समय आया तब तक क्षत्रिय-ब्राह्मण संघर्ष उत्पन्न हो गया था और क्षत्रिय ब्राह्मणों से वह पद छीन लेने को उद्यत हो गए थे जिसका उपभोग ब्राह्मण वैदिक-काल से किए आ रहे थे।' पाजिटर का अभिमत इससे भिन्न है। उन्होंने लिखा है-"राजाओं व ऋषियों की परम्पराएं भिन्न-भिन्न रहीं । सुदूर अतीत में दो भिन्न परम्पाएं थीं-क्षत्रिय परम्परा और ब्राह्मण परम्परा । यह मानना विचारपूर्ण नहीं कि विशुद्ध क्षत्रिय१. (क) वायुपुराण, पूर्वार्द्ध, ३३१५० :
नाभिस्त्वजनयत पुत्रं, मरुदेव्यां महाद्युतिः ।
ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ॥ (ख) ब्रह्माण्डपुराण, पूर्वार्द्ध, अनुषंगपाद, १४।६० :
ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ, सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ।
ऋषभाद् भरतो जज्ञे, वीरः पुत्रशताग्रजः ॥ २. प्राचीन भारतीय साहित्य, प्रथम भाग, प्रथम खण्ड, पृ० १५६ । १. संस्कृति के चार अध्याय, पृ० ११० ।
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