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________________ आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन परम्परा पूर्णतः विलीन हो गई थी या अत्यधिक भ्रष्ट हो गई या जो वर्तमान में है, वह मौलिक नहीं। ब्राह्मण अपने धार्मिक व्याख्याओं को सुरक्षित रख सके व उनका पालन कर सके हैं तो क्षत्रियों के सम्बन्ध में इससे विपरीत मानना अविचारपूर्ण है। क्षत्रिय परम्परा में भी ऐसे व्यक्ति थे, जिनका मुख्य कार्य ही परम्परा को सुरक्षित रखना था। 'क्षत्रिय व ब्राह्मण परम्परा का अन्तर महत्त्वपूर्ण है और स्वाभाविक भी। यदि क्षत्रिय परम्परा का अस्तित्व नहीं होता तो वह आश्चर्यजनक स्थिति होती। ब्राह्मण व क्षत्रिय-परम्परा की भिन्नता प्राचीनतम काल से पुराणों के संकलन व पौराणिक ब्राह्मणों का उन पर अधिकार होने तक रही। __ वस्तुतः क्षत्रिय परम्परा ऋग्वेद-काल से पूर्ववर्ती है । उपनिषद्-काल में क्षत्रिय ब्राह्मणों का पद छीन लेने को उद्यत नहीं थे; प्रत्युत ब्राह्मणों को आत्मविद्या का ज्ञान दे रहे थे। जैसा कि डा० उपाध्याय ने लिखा है-"ब्राह्मणों के यज्ञानुष्ठान आदि के विरुद्ध क्रान्ति कर क्षत्रियों ने उपनिषद् विद्या की प्रतिष्ठा की और ब्राह्मणों ने अपने दर्शनों की नींव डाली। इस संघर्ष का काल-प्रसार काफी लम्बा रहा जो अन्ततः द्वितीय शती ई०प० में ब्राह्मणों के राजनीतिक उत्कर्ष का कारण हुआ। इसमें एक ओर तो वशिष्ठ, परशुराम, तुरकावपेय, कात्यायन, राक्षस, पतंजलि और पुष्यमित्र शुंग की परम्परा रही और दूसरी ओर विश्वमित्र, देवापि, जनमेजय, अश्वपति, कैकेय, प्रवहण, जैबलिअजातशत्रु, कौशेय, जनक, विदेह, पाव, महावीर, बुद्ध और वृहद्रथ की। आत्मविद्या और अहिंसा ___अहिंसा का आधार आत्मविद्या है। उसके बिना अहिंसा कोरी नैतिक बन जाती है, उसका आध्यात्मिक मूल्य नहीं रहता। ___ अहिंसा और हिंसा कभी ब्राह्मण और क्षत्रिय परम्परा की विभाजनरेखा थी । अहिंसा प्रिय होने के कारण क्षत्रिय जाति बहुत जनप्रिय हो गई थी जैसा कि दिनकर ने लिखा है-"अवतारों में वामन और परशुराम, ये दो ही हैं जिनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। बाकी सभी अवतार क्षत्रियों के वंश में हुए हैं। वह आकस्मिक घटना हो सकती है, किन्तु इससे यह अनुमान आसानी से निकल आता है कि यज्ञों पर पलने के कारण ब्राह्मण इतने हिंसा-प्रिय हो गये थे कि समाज उनसे घणा करने लगा और ब्राह्मणों १. Ancient Indian Historical Tradition, p. 5, 6, २. संस्कृति के चार अध्याय, पृ० ११० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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