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आत्मविद्या : क्षत्रियों की देन
उसने कहा - " तुमने उस समय सुनाएं हैं, उनमें से मैं एक को भी नहीं तो तुम्हें क्यों नहीं बतलाता ? '
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( आते ही ) जैसे ये प्रश्न मुझे जानता । यदि मैं इन्हें जानता
तब वह गौतम राजा के स्थान पर आया और उसने अपनी
जिज्ञासाएं राजा के सामने प्रस्तुत कीं ।
राजा ने उसे चिरकाल तक अपने पास रहने का अनुरोध किया और कहा - " गौतम ! जिस प्रकार तुमने मुझ से कहा है, पूर्वकाल में तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं गई । इसी से सम्पूर्ण लोकों क्षत्रियों का ही (शिष्यों के प्रति ) अनुशासन होता रहा है ।"
बृहदारण्यक उपनिषद् में भी राजा प्रवाहण आरुणि से कहता है - " इससे पूर्व यह विद्या (अध्यात्म-विद्या) किसी ब्राह्मण के पास नहीं रही । वह मैं तुम्हें बताऊंगा । "
उपमन्यु का पुत्र प्राचीनशाल, पुलुष का पुत्र सत्ययज्ञ, मल्लवि के पुत्र का पुत्र इन्द्रद्युम्न, शर्करक्ष का पुत्र जन और अश्वतराश्व का पुत्र वुडल -- ये महागृहस्थ और परमश्रोत्रिय एकत्रित होकर परस्पर विचार करने लगे कि हमारा आत्मा कौन है और हम क्या हैं ?
उन्होंने निश्चय किया कि अरुण का पुत्र उद्दालक इस समय वैश्वानर आत्मा को जानता है, अतः हम उसके पास चलें । ऐसा निश्चय कर वे उसके पास आए ।
उसने निश्चय किया कि ये परम श्रोत्रिय महागृहस्थ मुझ से प्रश्न करेंगे, किन्तु मैं इन्हें पूरी तरह से बतला नहीं सकूंगा । अतः मैं इन्हें दूसरा उपदेष्टा बतला दूं ।
उसने कहा - 'इस समय केकयकुमार अश्वपति इस वैश्वानर संज्ञक आत्मा को अच्छी तरह से जानता है । आइए, हम उसी के पास चलें ।” ऐसा कहकर वे उसके पास चले गए ।
उन्होंने केकयकुमार अश्वपति से कहा - " इस समय आप वैश्वानर आत्मा को अच्छी तरह जानते हैं, इसलिए उसका ज्ञान हमें दें ।'
दूसरे दिन केकयकुमार अश्वपति ने उन्हें आत्मविद्या का उपदेश दिया । "
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१. छान्दोग्योपनिषद्, ५।३।१-७०, पृ० ४७२-४७६ ।
२. बृहदारण्यकोपनिषद्, ६।२८ : यथेयंविद्येतः पूर्वं न कश्मिश्चन ब्राह्मण उवाच
तां त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि ।
३. छान्दोग्योपनिषद्, ५।११।१-७ ।
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