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संस्कृति के दो प्रवाह
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में वैशाली पहुंचे। वहां आचार और उदक से उनकी भेंट हुई, फिर बाद में उन्होंने जैन धर्म की तप - विधि का अभ्यास किया । डा० राधाकुमुद मुखर्जी
अभिमत में बुद्ध ने पहले आत्मानुभव के लिए उस काल में प्रचलित दोनों साधनाओं का अभ्यास किया । आलार और उद्रक के निर्देशानुसार ब्राह्मण - मार्ग का और तब जैन-मार्ग का और बाद में अपने स्वतंत्र साधनामार्ग का विकास किया ।
महात्मा बुद्ध पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए या नहीं -- इन दोनों प्रश्नों को गौण कर हम इस रेखा पर पहुंचते हैं कि उन्होंने अहिंसा आदि तत्त्वों का जो निरूपण किया, उसका बहुत बड़ा आधार भगवान् पार्श्व की परम्परा है । उनके शब्द प्रयोग भी पार्श्व की परम्परा के जितने निकट हैं, उतने अन्य किसी परम्परा के निकट नहीं हैं । आज भो त्रिपिटक और द्वादशांगी का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले सहज ही इस कल्पना पर पहुंच जाते हैं कि उन दोनों का मूल एक है । विचार-भेद की स्थिति में सम्प्रदाय - परिवर्तन की रीति उस समय बहुत प्रचलित थी । पिटकों व आगमों के अभ्यासी के लिए यह अपरिचित विषय नहीं है । महात्मा बुद्ध के प्रमुख शिष्य मोद्गल्यायन भी पहले पार्श्वनाथ की शिष्य - परम्परा में थे । वे भगवान् महावीर की किसी प्रवृत्ति से रुष्ट होकर बुद्ध के शिष्य बन
गए।"
गोशालक और पूरणकश्यप
आजीवक सम्प्रदाय के आचार्य गोशालक के विषय में दो मान्यताएं प्रचलित हैं । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वह भगवान् महावीर का शिष्य था और दिगम्बर मान्यता के अनुसार वह पार्श्व की शिष्य परम्परा में था । मंखलीपुत्र गोशालक ने सर्वानुभूति और सुनक्षत्र- इन दोनों निग्रंथों को अपनी तेजोलेश्या से जला डाला, तब भगवान् महावीर ने कहा'गोशालक ! मैंने तुम्हें प्रव्रजित किया, बहुश्रुत किया और तुम आज मेरे ही साथ इस प्रकार का मिथ्या आचरण कर रहे हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है । इसका आशय स्पष्ट है कि गोशालक भगवान् महावीर
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१. Gautma, the man, 22/5. २. हिन्दू सभ्यता, पृ० २३६ ।
३. धर्म परीक्षा, अध्याय, १८ ।
४. भगवती, १५।१११ : तुमं मए चेव पव्वाविए जाव मए चेव बहुस्सुई कए, ममं देव
मिच्छं विपडिवन्ने तं मा एवं गोसाल ?
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