________________
श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु के पास प्रवजित हुआ था। छह वर्ष तक भगवान् के साथ रहा और उसके बाद वह आजीवक संघ का आचार्य बन गया। उस समय उसके साथ भगवान पार्श्व के छह शिष्य सम्मिलित हुए।
दिगम्बर मान्यता के अनुसार मश्करी गोशालक और पूरणकश्यप भगवान् महावीर के प्रथम समवसरण (धर्म-परिषद्) में विद्यमान थे। वे दोनों पार्श्वनाथ के प्रशिष्य थे। उस परिषद् में इंद्रभूति गौतम आए। भगवान् महावीर की ध्वनि का क्षरण हुआ। मश्करी गोशालक रुष्ट होकर चला गया। उसने सोचा-बहुत आश्चर्य की बात है, ग्यारह अंगों (शास्त्रों) को धारण करने वाला मैं परिषद में विद्यमान था फिर भी भगवान् की ध्वनि का क्षरण नहीं हुआ। मुझे उसके योग्य नहीं समझा गया। यह इंद्रभूति गौतम वेदपाठी है। अंगों को नहीं जानता, फिर भी उसके आने पर भगवान की ध्वनि का क्षरण हुआ। उसे उसके योग्य समझा गया। इससे लगता है कि ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। अज्ञान ही श्रेष्ठ है। उसीसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वह अज्ञानवादी बन गया ।
___ श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यताओं में भेद होने पर भी इसमें कोई मतभेद नहीं है कि गोशालक का सम्बन्ध श्रमण परम्परा के मूल उद्गम से था। आजीवक सम्प्रदाय गोशालक से पहले भी था। वह उसका प्रवर्तक नहीं था। उस सम्प्रदाय का मूल-स्रोत भी प्राचीन श्रमण परम्परा से भिन्न नहीं है। जैन श्रमणों और आजीवकों की तपस्या पद्धति और सिद्धान्तनिरूपणा में कुछ भेद था तो बहुत समानता भी थी, किन्तु उसमें मुख्य भेद आजीविका की वत्ति का था। आजीवक श्रमण विद्या आदि के प्रयोग द्वारा आजीविका करते थे। जैन श्रमणों को यह सर्वथा अमान्य था। जो श्रमण लक्षण, स्वप्न और अंगविद्या का प्रयोग करते थे, उन्हें जैन श्रमण कहने को भी वे तैयार नहीं थे।
आजीवक लोग मूलतः पार्श्व की परम्परा से उदभूत थे, यह मानना निराधार नहीं है। सूत्रकृतांग (शश।५) में नियतिवादियों को पार्श्वस्थ कहा है१. भगवती, १५७७ । २. दर्शनसार, १७६-१७६ । ३. History and Doctrines of the Ajivikas, p. 98. ४. उत्तराध्ययन, ८।१३; १५७,१६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org