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संस्कृति के दो प्रवाह
एवमेगेहु पासत्था, ते भुज्जो विप्पगम्मिमा ।
एवं उद्विआ संता, गते दुक्खविमोक्खया ।। वत्तिकार ने पार्श्वस्थ का अर्थ 'यक्ति से बाहर ठहरने वाला' या 'पाश-बन्धन में स्थित' किया है, किन्तु ये सारे अर्थ कल्पना से अधिक मूल्य नहीं रखते । वस्तुतः पार्श्वस्थ का अर्थ 'पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित' होना चाहिए।
__ भगवान महावीर ने तीर्थ की स्थापना की और वे चौबीसवें तीर्थङ्कर हुए। उसके पश्चात भगवान पार्श्व के अनेक शिष्य भगवान् महावीर के तीर्थ में प्रवजित हो गए और अनेक प्रवजित नहीं भी हुए। हमारा ऐसा अनुमान है कि भगवान् पार्श्व के जो शिष्य भगवान् महावीर के शासन में सम्मिलित नहीं हुए उसके लिए पार्श्वस्थ' शब्द प्रयुक्त हुआ है तथा भगवान् महावीर से पहले ही कुछ साधु भगवान् पार्ट्स की मान्यता का अतिक्रमण कर अपने स्वतंत्र विचारों का प्रचार कर रहे थे उनके लिए भी 'पार्श्वस्थ' शब्द का प्रयोग किया गया है। पहली श्रेणी वालों को 'देशतः पार्श्वस्थ' कहा गया है, एवं दूसरी श्रेणी वालों को 'सर्वतः पार्श्वस्थ' कहा गया है । भगवान् महावीर के तीर्थ-प्रवर्तन के बाद भी पार्श्व की परम्परा के जो श्रमण जैन धर्म की रत्नत्रयी-ज्ञान, दर्शन और चारित्र--से सर्वथा विमुख होकर मिथ्यादृष्टि का प्रचार करने में रत थे, उन्हें 'सर्वतः पार्श्वस्थ' कहा गया है।
जो श्रमण शय्यातर-पिण्ड, अभिहत-पिण्ड, राज-पिण्ड, नित्य-पिण्ड, अग्र-पिण्ड आदि आहार का उपभोग करते थे, उन्हें 'देशतः पार्श्वस्थ' कहा गया।"
आजीवक 'सर्वतः पार्श्वस्थ' थे । गोशालक आजीवक-सम्प्रदाय के
१. सूत्रकृतांग, १११।३२ वृत्ति ।
युक्तिकदम्बकाबहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्था: परलोकक्रियापार्श्वस्था वा, नियतिपक्षसमाश्रयणात्परलोकक्रियावयथ्यं, यदि वा---पाश इव पाश:--कर्म
बन्धनं, तच्चेह युक्तिविकल नियतिवादप्ररूपणं तत्र स्थिताः पाशस्थाः । २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा १०४-१०५ :
सो पासत्थो दुविहो, सव्वे देसे य होइ नायव्वो। सव्वंमि नाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ।। देसंमि य पासत्थो, सेज्जायरऽभिहडरायपिण्डं च । नीयं च अग्गपिण्डं भुंजइ निक्कारणे चेव ॥
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