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________________ संस्कृति के दो प्रवाह अवस्था तथा उपसम्पन्न अवस्था । श्रामणेर अवस्था में केवल दस नियमों का पालन करना पड़ता है । उपसम्पन्न भिक्षु को प्रातिमोक्ष के अन्तर्गत दो सौ सत्ताईस नियमों का पालन करना पड़ता है । बीस वर्ष की आयु के बाद ही कोई उपसम्पन्न हो सकता है ।' इस प्रकार की मीमांसा का सारभाग यह है १. श्रमण परम्परा में गृहस्थ जीवन की अपेक्षा श्रमण जीवन श्रेष्ठ माना गया । ४४ २. श्रमण होने के नाते तीन अवस्थाएं योग्य मानी गईं । ३. श्रमण जीवन से ही मोक्ष की प्राप्ति मानी गई । ४,५. यज्ञ-प्रतिरोध ओर वेद का अप्रामाण्य हमारे सांस्कृतिक अध्ययन की यह सहज उपलब्धि है कि वैदिक संस्कृति का केन्द्र यज्ञ और श्रमण संस्कृति का केन्द्र श्रामण्य रहा है । वैदिक धारणा है-यज्ञ की उत्पत्ति का मूल है - विश्व का आधार । पापों का नाश, शत्रुओं का संहार, विपत्तियों का निवारण, राक्षसों का विध्वंस, व्याधियों का परिहार सब यज्ञ से ही सम्पन्न होता है । दीर्घायु, समृद्धि और अमरत्व - सबका साधन यज्ञ ही माना गया है । वास्तव में वैदिकों के जीवन का सम्पूर्ण दर्शन यज्ञ में सुरक्षित है। यज्ञ के इस तत्त्व का स्वरूप ॠग्देव में यों व्यक्त हुआ है-यज्ञ इस भुवन की, उत्पन्न होने वाले संसार की नाभि है, उत्पत्ति प्रधान है । देव तथा ऋषि यज्ञ से ही उत्पन्न हुए; यज्ञ से ही ग्राम और अरण्य के पशुओं की भेड़ें, वेद आदि का निर्माण भी यज्ञ के ही प्रथम धर्म था । सृष्टि हुई; अश्व, गाएं, अज, कारण हुआ । यज्ञ ही देवों का आर्यपूर्व जातियों (जो श्रमण परंपरा का अनुगमन करती थीं) का प्रथम धर्म था अहिंसा । इसीलिए वे यज्ञ-संस्था से कभी प्रभावित नहीं हुईं। जैन और बौद्ध साहित्य में यज्ञ के प्रति जो अनादर का भाव मिलता है, वह उनकी चिरकालीन यज्ञ विरोधी धारणा का परिणाम है । ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा - 'राजर्षे ! पहले तुम विपुल यज्ञ करो, फिर श्रमण बन जाना । इस पर राजर्षि ने कहा- 'जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गाएं देता है, उसके लिए भी संयम श्रेय है, भले फिर वह १. सुत्तनिपात, पृ० २४४ । २. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० ४० । ३. उत्तराध्ययन, ६३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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