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________________ श्रमण परम्परा की एकसूत्रता और उसके हेतु ४५ कुछ भी न दे। यज्ञ-संस्था का प्रतिरोध प्रारंभ से ही होता रहा है। अग्नि-हीन व्यक्तियों का उल्लेख ऋग्देव में मिलता है। उन्हें देव-विरोधी और यज्ञविरोधी भी कहा गया है। यतिवर्ग यज्ञ-विरोधी था। इन्द्र ने उसे सालावकों को समर्पित किया था। इस प्रकार के और भी अनेक वर्ग थे । उन्होंने वैदिक धारा को प्रभावित किया था। लक्ष्मणशास्त्री के अनुसार-'इस अवैदिक और यज्ञ को न मानने वाली प्रवृत्ति ने वैदिक विचार पद्धति को भी प्रभावित किया। बाह्य कर्मकाण्ड के बदले मानसिक कर्मरूप उपासना को प्रधानता देने वाली विचारधारा यजुर्वेद में प्रकट हुई है। उसमें कहा गया है कि जिस तरह अश्वमेध के बल पर पाप और ब्रह्महत्या से मुक्त होना संभव है उसी तरह अश्वमेध की चिन्तात्मक उपासना के बल पर भी इन्हीं दोषों से मुक्त होना संभव है (तैत्तिरीय संहिता ५/३/१२)। इस तरह की शुद्ध मानसिक उपासना का विधान करने वाले अनेकों वैदिक उल्लेख प्राप्त हैं।' यज्ञ-संस्थान का प्रतिरोध श्रमण ही नहीं कर रहे थे किन्तु उनसे प्रभावित आरण्यक और औपनिषदिक ऋषि भी करने लगे थे। प्रतिरोध की थोड़ी रेखाएं ब्राह्मण-काल में भी खिच चुकी थीं। शतपथ ब्राह्मणकार ने कहा- 'जिस स्थान पर कामनाएं पूर्ण होती हैं, वहां पहुंचना विद्या की सहायता से ही संभव है। वहां न दक्षिणा पहुंच पाती है और न विद्याहीन तपस्वी ।" ऋषि कावषेय कहते है-'हम वेदों का अध्ययन किसलिए करें और यज्ञ भी किसलिए करें ? क्योंकि वाणी का उपरम होने पर प्राणवृत्ति का विलय होता है और प्राण का उपरम होने पर वाणी की वत्ति का उदभव होता है, प्राण की प्रवृत्ति होने पर वाणी की वृत्ति विलीन हो जाती है। १. उत्तराध्ययन, ६।४० । २. ताण्ड्य महाब्राह्मण, १३।४ : इन्द्रो यतीन् सालावृकेभ्यः प्रायच्छत् । ३. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १६६ । ४. शतपथ ब्राह्मण, १०१५।४।१६ । ५. ऐतरेय आरण्यक, ३।२।६, पृ० २६६ : एतद्ध स्म वै तदविद्वांस आहु ऋषयः कावषेयाः किमर्था वयमध्येण्यामहे किमर्था वयं यज्ञयामहे वाचि हि प्राणं जुहुमः प्राणे वा वाचं यो ह्य व प्रभवः स एवाप्ययः इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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