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श्रमण परम्परा को एकसूत्रता और उसके हेतु
४३ वह मरने के बाद स्वर्ग में जाता है और जब व्रत का पूर्ण उत्कर्ष हो जाता है, तब मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होता है ।
भिक्षु की श्रेष्ठता जन्मना तो है ही नहीं, किन्तु वेग से भी नहीं है। उसकी श्रेष्ठता का एक मात्र हेतु व्रत या संयम है। इसी दृष्टि से कहा है
कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है, किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है ।
'चीवर, चर्म, नग्नत्व, जटाधारीपन, संघाटी (उत्तरीय वस्त्र) और सिर मुंडाना-ये सब दुष्टशील वाले साध की रक्षा नहीं करते।
'भिक्षा से जीवन चलाने वाला भी यदि दुःशील हो तो वह नरक से नहीं छूटता।"
भिक्षु का अर्थ ही व्रती है। अपूर्ण व्रती या व्रत की परिपूर्ण आराधना तक न पहुंचने वाले को स्वर्ग ही प्राप्त होता है, मोक्ष नहीं। मोक्ष उसी को प्राप्त होता है, जो व्रत की चरम आराधना तक पहुंच जाता है। ऐसा गृहस्थ के वेश में भी हो सकता है। वेश भले ही गृहस्थ का हो, आत्मिक-शुद्धि से जो इस स्थिति तक पहुंच जाता है, वह वास्तविक अर्थ में भिक्षु ही होता है। इसीलिए 'सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव'-ये दो विकल्प केवल भिक्षु के लिए ही हैं। गृहस्थ वही होता है, जो महाव्रत या उसके उत्कर्ष तक नहीं पहुंच पाता। श्रमण-परम्परा में श्रमण होने से पूर्व गृहवास करना आवश्यक नहीं माना गया। कोई व्यक्ति बाल्य अवस्था में भी 'श्रमण' हो सकता है, यौवन या बुढ़ापे में भी हो सकता है।'
भृगु पुरोहित ने अपने पुत्रो से कहा---'पुत्रो ! पहले हम सब एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों का पालन करें, फिर तुम्हारा यौवन बीत जाने के बाद घर-घर से भिक्षा लेते हुए विहार करेंगे।"
___ तब पुत्र बोले-पिता ! कल की इच्छा वही कर सकता है, जिसके मृत्यु के साथ मैत्री हो, जो मौत के मुंह से बच कर पलायन कर सके और जो जानता हो-मैं नहीं मरूंगा।"
- बौद्ध संघ में भिक्षु-जीवन की दो अवस्थाएं मान्य हैं--श्रामणे
१. उत्तराध्ययन, ५।२०-२२ । २. नंदी, सूत्र २१ । ३. स्थानांग, ३११७५॥
४. उत्तराध्ययन, १४।२६ । ५. वही, १४।२७।
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