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संस्कृति के दो प्रवाह और श्रमण । श्रमण कोई गृहस्थ ही बनता है। अतः जीवन का प्रारम्भिक रूप गृहस्थ ही है । श्रामण्य विवेक द्वारा लक्ष्य-पूर्ति के लिए स्वीकृत पक्ष है। वाशिष्ठ का यह अभिमत-'सभी आश्रमी गहस्थ आश्रम में स्थित होते हैं'-यदि इस आशय पर आधारित हो कि सब आश्रमों का मूल गृहस्थाश्रम है तो वह श्रमण परंपरा में भी अमान्य नहीं है। वाशिष्ठ ने स्वयं आगे लिखा है--'जैसे माता के सहारे सब जीव जीते हैं, वैसे ही गृहस्थ के सहारे सब भिक्ष जीते हैं।" यह तथ्य उत्तराध्ययन में याचना परीषह के रूप में स्वीकृत है : 'अरे ! अनगार-भिक्षु की यह दैनिकचर्या कितनी कठिन है कि उसे सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता.२
___ किन्तु श्रमण परंपरा वैदिक परंपरा के इस अभिमत से सहमत नहीं कि गहस्थ आश्रम संन्यास की तुलना में श्रेष्ठ है । इसीलिए कहा है--- . 'गोचराग्र में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है । अतः गृहवास ही श्रेय है-मुनि ऐसा चिन्तन न करे।"
जैन धर्म की मूल मान्यता यह है कि अव्रत प्रेय है-बन्धन है और व्रत श्रेय है-मुक्ति है । सुव्रती मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त होता है, भले फिर वह भिक्षु हो या गृहस्थ ।' . 'श्रद्धालु श्रावक गृहस्थ-सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात के लिए भी न छोड़े।
___ 'इस प्रकार शिक्षा से समापन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर देवलोक में जाता है।
'जो संवत भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है--सब दुःखों से मुक्त या महान ऋद्धि वाला देव ।
इन श्लोकों की स्पष्ट ध्वनि है कि सुव्रती गृहस्थ व व्रत-संपन्न भिक्षु की श्रेष्ठ गति होती है। जब तक व्रत का पूर्ण उत्कर्ष नहीं होता, तब तक
१. वाशिष्ठ धर्मशास्त्र, ८।१६ :
यथा मातरमाश्रित्य, सर्वे जीवन्ति जन्तवः ।
ऐवं गृहस्थमाश्रित्य, सर्वे जीवन्ति भिक्षुकाः ।। २. उत्तराध्ययन, २०२८ । ३. उत्तराध्ययन, २।२६ । ४. वही, ५२२ । ५. बही, ५२२३-२५।
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