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२४. सामाचारी
जैन तीर्थङ्कर धर्म को व्यक्तिगत मानते थे, फिर भी उन्होंने उसक आराधना को सामूहिक बनाया। वीतराग हर कोई व्यक्ति हो सकता था जो कषाय-मुक्ति की साधना करता; किन्तु तीर्थङ्कर हर कोई नहीं हं सकता था । वह वही हो सकता, जो तीर्थ की स्थापना करता यानी जनता के लिए साधना का समान धरातल प्रस्तुत करता और साधना के लिए उसे संगठित करता । भगवान् महावीर केवल अर्हत् या वीतराग ही नहीं थे, किन्तु तीर्थंकर भी थे । उनका तीर्थ बहुत शक्तिशाली और सुसंगठित था । वे अनुशासन, व्यवस्था और विनय को बहुत महत्त्व देते थे । उनके तीर्थ में हजारों साधु-साध्वियां थीं। उनकी व्यवस्था के लिए उनका शासन ग्यारह ( या नौ) गणों में विभक्त था । प्रत्येक गण एक गणधर के अधीन होता था । महावीर के ग्यारह गणधर थे ।
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वर्तमान में हमें जो साहित्य, साधनाक्रम और सामाचारी प्राप्त है, उसका अधिकांश भाग पांचवें गणधर सुधर्मा के गण का है । उत्तराध्ययन आदि सूत्रों से जाना जाता है कि महावीर ने गण की व्यवस्था के लिए दस प्रकार की सामाचारी का विधान किया
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( १ ) आवश्यकी - गमन के प्रारम्भ में मुनि को आवश्यकी का उच्चारण करना चाहिए । यह इस बात का सूचक है कि उसका गमनागमन प्रयोजन - शून्य नहीं होना चाहिए ।
(२ निषेधकी - ठहरने के समय मुनि को निषेधिकी का उच्चारण करना चाहिए । यह इस बात का सूचक है कि प्रयोजन पूरा होने पर मुनि को स्थित हो जाना चाहिए ।
(३) आप्रच्छना - मुनि अपने लिए कोई प्रवृत्ति करे उससे पूर्व आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए ।
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(४) प्रतिप्रच्छना - मुनि दूसरे मुनियों के लिए कोई प्रवृत्ति करे उससे पूर्वं उसे आचार्य की स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए । एक बार एक प्रवृत्ति के लिए स्वीकृति प्राप्त की, फिर वही काम करना हो तो उसके लिए दुबारा स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए ।
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