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जैन धर्म और क्षत्रिय (२३) विजय (अ० १८) (२४) महाबल (अ० २८) (२५) मृगापुत्र (अ० १६)
अरिष्टनेमि (अ० २२) (२७) राजीमती (अ० २२) (२८) रथनेमि (अ० २२) (२६) केशी (अ० २३) ..
इस तालिका के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहंचते हैं कि इस क्रियावादी (या आत्मवादी) विचारधारा ने क्षत्रियों को अधिक प्रभावित किया था। इतिहास की यह विचित्र घटना है कि जो धारा क्षत्रियों से उद्भूत हुई और सभी जातियों को प्रभावित करती हुई भी उनमें सतत प्रवाहित रही, वही धारा आगे चल कर केवल वैश्य वर्ग में सिमट गई।
समग्र आगमों के अध्ययन से हम जान पाते हैं कि निर्ग्रन्थ संघ में हजारों ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र निर्ग्रन्थ थे। किन्तु उनमें प्रचुरता क्षत्रियों की ही थी। इस प्रसंग में हमें इस विषय पर संक्षिप्त विवेचन करना है कि जैन धर्म केवल वैश्य वर्ग में सीमित क्यों हुआ?
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