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संस्कृति के दो प्रवाह
जैन परम्परा में ध्यान करने की प्रवृत्ति का ह्रास हुआ, उसका एक कारण यह मनोवृत्ति भी रही होगी कि वर्तमान समय में हम ध्यान के अधिकारी नही हैं । कुछ आचार्यों ने इस मनोवृत्ति का विरोध भी किया, किन्तु फिर भी समय ने उन्हीं का साथ दिया, जो ध्यान नहीं होने के पक्ष में थे ।
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इसमें कोई संदेह नहीं कि ध्यान के लिए शारीरिक संहनन की दृढ़ता बहुत अपेक्षित है और वह इसलिए अपेक्षित है कि मन की स्थिरता शरीर की स्थिरता पर निर्भर है ।
ध्यान का कालमान
चेतना की परिणति तीन प्रकार की होती है
(१) हीयमान । (२) वर्धमान । ( ३ ) अवस्थित ।
हीयमान और वर्धमान - ये दोनों परिणतियां अनवस्थित हैं । जो अनवस्थित हैं, वे ध्यान नहीं हैं । अवस्थित परिणति ध्यान है । गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा - " भन्ते ! अवस्थित परिणति कितने समय तक हो सकती है ?" भगवान् ने कहा - " गौतम ! जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त्त तक ।"" इसी संवाद के आधार पर ध्यान का कालमान निश्चित किया गया । एक वस्तु के प्रति चित्त का अवस्थित परिणाम अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट) तक हो सकता है ।' उसके बाद चिन्ता, भावना या अनुप्रेक्षा होने लग जाती है । उक्त कालमर्यादा एक वस्तु में होने वाली चित्त की एकाग्रता की है । वस्तु का परिवर्तन होता रहे, तो ध्यान का प्रवाह लम्बे समय तक भी हो सकता है । उसके लिए अन्तर्मुहर्त का नियम नहीं है।
ध्यान -सिद्धि के हेतु
ध्यान-सिद्धि के लिए चार बातें अपेक्षित हैं- ( १ ) गुरु का उपदेश, (२) श्रद्धा, (३) निरन्तर अभ्यास और ( ४ ) स्थिर मन ।
पतंजलि ने अभ्यास की दृढ़ता के तीन हेतु बतलाएं हैं- ( १ ) दीर्घकाल, (२) निरन्तर और ( ३ ) सत्कार ।" अनेक ग्रन्थों में योग या
१. भगवती, २५।३८७ ।
२. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।२७ । ३. ध्यानशतक, ४ ।
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४. तत्त्वानुशासन, २१८ । ५. पातंजलयोगसूत्र, १ । १४ ।
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