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योग
२३७ . शरीर की समता का मन पर असर होता है और मन की समता का चेतना पर असर होता है। चेतना की अस्थिरता मानसिक विषमता की स्थिति में ही होती है । लाभ-अलाभ, सुख-दुःख आदि स्थितियों से मन जितना विषम होता है, उतनी ही चंचलता होती है। उन स्थितियों के प्रति मन का कोई लगाव नहीं होता, तब वह सम होता है। उस स्थिति में चेतना सहज ही स्थिर होती है। यही अवस्था ध्यान है। इसीलिए आचाय शुभचन्द्र ने समभाव को ध्यान माना है।' आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत है कि जो व्यक्ति समता की साधना किए बिना ध्यान करता है, वह कोरी विडम्बना करता है। ध्यान और शारीरिक संहनन
जैन परम्परा में कुछ लोग यह मानने लगे थे कि वर्तमान समय में ध्यान नहीं हो सकता, क्योंकि आज शरीर का संहनन उतना दृढ़ नहीं है जितना पहले था। ध्यान के अधिकारी वे ही हो सकते हैं, जिनका शारीरिक संहनन उत्तम हो। तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही बताया गया है कि ध्यान उसी के होता है, जिसका शारीरिक संहनन उत्तम होता है।'
यह चर्चा विक्रम की प्रथम शताब्दी के आसपास ही प्रारम्भ हो चुकी थी। उसी के प्रति आचार्य कुन्दकुन्द ने अपना अभिमत प्रकट किया था'इस दुस्सम-काल में भी आत्म-स्वभाव में स्थित ज्ञानी के धर्मध्यान हो सकता है। जो इसे नहीं मानता, वह अज्ञानी हैं।" आचार्य देवसेन ने भी इस अभिमत से सहमति प्रकट की थी। यह चर्चा विक्रम की १०वीं शताब्दी में भी चल रही थी। रामसेन ने भी इस प्रसंग पर लिखा है'जो लोग वर्तमान में ध्यान होना नहीं मानते वे अर्हत् मत से अनभिज्ञ हैं। उनके अनुसार शुक्लध्यान के योग्य शारीरिक संहनन अभी प्राप्त नहीं है, किन्तु धर्मध्यान के योग्य संहनन आज भी प्राप्त है।" १. ज्ञानार्णव, २७।४। २. योगशास्त्र, ४।११२ :
समत्वमवलम्ब्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् । बिना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्ब्यते॥ ३. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।२७ । ४. मोक्खपाहुड, ७३-७६ । ५. तत्त्वसार, १४ । ६. तत्त्वानुशासन, ८२-८४ ।
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