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योग
पतञ्जलि ने आसन की व्याख्या की है, उल्लेख नहीं किया है । भाष्यकार व्यास ने है-'
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१. पद्मासन,
२. भद्रासन,
३. वीरासन,
४. स्वस्तिकासन, C. हस्तिनिषदन, १०. ऊष्ट्रनिषदन,
५. दण्डासन,
आसनों के अर्थ मेद
६. सोपाश्रय,
७. पर्यङ्क,
८. क्रौंचनिषदन,
कुछ आसनों के अर्थ समान हैं तो कुछ एक आसनों के अर्थ समान नहीं हैं । पर्यङ्क, अर्ध - पर्यङ्क, वीरासन, उत्कटिका, हस्तिशुण्डिका, दण्डायत - इन आसनों के अर्थ विभिन्न प्रकार से उपलब्ध होते हैं। अभयदेवसूरि ने पर्यङ्क और अर्द्ध-पर्यङ्क आसन का अर्थ क्रमशः - 'पद्मासन' और अर्द्ध- पद्मासन किया है ।"
आचार्य हेमचन्द्र ने पद्मासन को पर्यङ्कासन से भिन्न माना है ।"
आचार्य हेमचन्द्र और अमितगति के अनुसार पर्यङ्कासन का अर्थ है -पैरों को मोड़, पिंडलियों के ऊपर जांघों को रख कर बैठना और हस्ततल पर दूसरा हस्ततल जमा नाभि के पास रखना । यह मुद्रा वज्रासन जैसी है । शङ्कराचार्य ने पर्यङ्कासन की अवस्थिति इससे भिन्न मानी है । उनके अनुसार घुटनों को मोड़, हाथों को फैला कर सोना 'पर्यङ्कासन' है । ' यह मुद्रा सुप्तवज्रासन जैसी है । सुप्तवज्रासन को पर्यङ्कासन माना जाए
१. पातञ्जलयोगसूत्र, २०४६, भाष्य ।
२. स्थानांग, ५।४५, वृत्ति: पर्यङ्का – जिन प्रतिमानामिव या पद्मासनमिति रूढा, अर्द्ध पर्यङ्का - ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणेति ।
३. योगशास्त्र, ४।१२५, १२६ ।
४. (क) योगशास्त्र, ४।१२५ :
स्याज्जंघयोरधोभागे, पादोपरि कृते सति । पर्यङ्को नाभिगोत्तान दक्षिणोत्तर पाणिकः ॥
ख अमितगति श्रावकाचार, ८।४६ : बुधैरुपर्यधोभागे,
समस्तयोः कृते ज्ञेयं, २1४७,
५. पातञ्जलयोगसूत्र, पर्यङ्कासनम् ।
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किन्तु उसके प्रकारों का आसनों का उल्लेख किया
११. समसंस्थान,
१२. स्थिरसुख और
१३. यथासुख ।
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घयोरुभयोरपि ।
पर्यङ्कासनमासनम् ॥
भाष्य विवरण : आजानुप्रसारितबाहुशयनं
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