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________________ संस्कृति के दो प्रवाह उक्त प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि अनुरक्त मानस ने विरक्त को सदा भोगलिप्त करने का प्रयत्न किया है और विरक्त मानस ने सदा भोग से अलिप्त रहने का प्रयत्न किया है। यह भोग की अलिप्ति ही अनगार बनने का मुख्य कारण रही है।' बाह्यसंग-त्याग अनगार-जीवन में भोगसक्ति और उसके निमित्तों का भी वर्जन किया जाता है। कुछ लोग ऐसे जीवन को बहुत आवश्यक नहीं मानते थे, किन्तु श्रमण-परम्परा में इसे बहुत महत्त्व दिया गया। जयघोष ने विजयघोष से कहा-'मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं । तू निष्क्रमण कर, जिससे इस संसार-सागर में पड़ रहे आवर्तों से बच जाए। कुछ लोग सोचते हैं कि धर्म की आराधना के लिए आगार और अनगार की भेदरेखा खींचना आवश्यक नहीं । जो ऐसा सोचते हैं उनका मानना है कि विकार से बचने की आवश्यकता है, विषयों-निमित्तों से बचने की आवश्यकता नहीं। एक सीमा तक यह सही भी है। भगवान ने कहा-'कामभोग न समता उत्पन्न करते हैं और न विकार । इन्द्रिय और मन के विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द और संकल्प-रागी व्यक्ति के लिए ही दुःख के हेतु बनते हैं, वीतराग के लिए वे किंचित् भी दुःख के हेतु नहीं होते।" विषय अचेतन हैं । वे अपने आप में मनोज्ञ-अमनोज्ञ कुछ भी नहीं हैं। उनमें जिसका प्रियभाव होता है, उसके लिए वे मनोज्ञ और जिसका उनमें अप्रियभाव होता है, उसके लिए वे अमनोज्ञ होते हैं। किन्तु जो उनके प्रति विरक्त होता है, उसके लिए वे मनोज्ञ, अमनोज्ञ कुछ भी नहीं होते। इस प्रसंग का फलित यह है कि बाह्य विषय हमारे लिए न दोषपूर्ण हैं और न निर्दोष । चेतना की शुद्धि हो तो वे उसके लिए निर्दोष हैं और चेतना अशुद्ध हो तो वे भी उसके लिए सदोष बन जाते हैं।' दोष का मूल चेतना की परिणति है, बाह्य विषय नहीं । १. उत्तराध्ययन, १६६ । २. वही, २०३८ । ३. वही, ३२।१००,१०१ । ४. वही, ३२॥१०६ । ५. मूलाराधना, १६६७, अमितगति : अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः संपद्यते बहिः । बाह्य हि कुरुते दोषं, सर्वमन्तरदोषतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003060
Book TitleSanskruti ke Do Pravah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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