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धर्म की धारणा के हेतु
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लिए धर्म का सहारा लिया । भगवान् महावीर ने इसी भावना के क्षणों में गौतम से कहा था
'रात्रियां बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पान जिस प्रकार गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।'
'कुश की नोंक पर लटकते हुए ओस - बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की गति है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।'
'तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और सब प्रकार का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत
कर ।'
'पित्तरोग, फोड़ा, फुंसी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्रघाती रोग शरीर का स्पर्श करते हैं, जिनसे यह शरीर शक्ति-हीन होता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।"
' गद्दभलि मुनि ने राजा संजय से कहा - ' जबकि तू पराधीन है, इसलिए सब कुछ छोड़कर तुझे चले जाना है, तब अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ?"
मृगापुत्र ने अपने माता-पिता से कहा - 'यह शरीर अनित्य है, अशुचि से उत्पन्न है, आत्मा का यह अशाश्वत आवास है तथा दुःख और क्लेशों का भाजन है ।
'इस अशाश्वत शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल रहा है । इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है । यह पानी के बुलबुले के समान नश्वर है ।' 'मनुष्य जीवन असार है, व्याधि और रोगों का घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है, इसमें मुझे एक क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है ।" इस प्रकार अनित्यवादी दृष्टिकोण धर्म की आराधना के लिए महान् प्रेरणा-स्रोत रहा है ।
यह कल्पना भी युक्ति से परे नहीं है कि भगवान् बुद्ध ने अनित्यता का उपदेश जनता को धर्माभिमुख करने के लिए दिया था। आगे चलकर दर्शन-काल में वही 'क्षणभंगुरवाद' नामक दार्शनिक सिद्धांत के रूप में परिणत हो गया ।
१. उत्तराध्ययन, १०११,२, २६, २७ । २. वही, १८।१२ ।
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३. वही, १६१२-१४ ।
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